Tuesday, 9 October 2012

इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिलना



इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिलना
ये इत्तिफ़ाक था या फिर मज़ाक था कोई 

काश तू मुझसे मिला होता किसी सहरां में
ये ही कह देते ज़माने को, अब वीरानों में
हम मिले तो हैं, पर खुश्क हो चुका कब का
अपनी उल्फ़त का लहू वक़्त के थपेड़ों से
के बस अब हाथ मिला सकते हैं कुछ ऐसे
देखने वाला कुछ समझे भी और समझ न सके.

काश तू मुझसे मिला होता किसी मेले में
बूढों, बच्चों औ' जवां उम्र के इक रेले में
साथ होके भी हमें साथ कोई क्या कहता
कितनी होती है भीड़ चूड़ियों के ठेले में !
किस के हाथों में किस का हाथ सरसरा जाये
देख भी ले तो कोई क्या है, देखता जाये

काश तू मुझसे मिला होता ऐसी राहों में
जहाँ क़दमों का पता है ना गिनतियाँ सर की
तमाम लोग हैं के बस चले ही जाते हैं
देखने वाला क्या जाने, अगर वो देख भी ले
ये लोग इस तरफ आते हैं या के जाते हैं

ऐसी जगहों पे मिलते तो कितना अच्छा था 
तू मुझको छोड़ के आसानी से जा सकता था
छुडा के हाथ जब चाहे, पलट भी सकता था
देखने वालों की आँखों से बच भी सकता था

मगर मैं क्या करूं के इंतज़ार का ये पुल
जहां पे मैंने अपनी उम्र का बड़ा हिस्सा
कुछ इस तरह बिताया है कि मेरी तलाश
कहीं भी जाये, यहीं आके थम सी जाती थी
मेरी तलाश यहीं पे सुकून पाती थी

इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिलना
ये इत्तिफ़ाक था या फिर मज़ाक था कोई

अगर था छोड़ के जाना तुम्हें और एक बार
मेरी तलाश के दर पर तो नहीं आना था 
इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिल कर
साथ चलना था या  साथ डूब जाना था !

1 comment:

  1. अगर था छोड़ के जाना तुम्हें और एक बार
    मेरी तलाश के दर पर तो नहीं आना था
    इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिल कर
    साथ चलना था या साथ डूब जाना था !बहुत सुंदर ....

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