दबी रहती हैं ख्वाहिशें
कई बार मोड़ कर रखे हुए उस ख़त की तहों में
जिसे आख़िरी तो नहीं होना था
लेकिन
जिसके बाद कोई ख़त नहीं आया.
संभाल कर खोलती हैं उस ख़त की एक-एक तह को
और इंतज़ार की भाषा में बार-बार पढ़ती हैं
उन ख्वाहिशों को,
जो हर बार आंसुओं में डूब कर मर जाती हैं.
फिर किसी शाम एक सहेली
बनती है साक्षी
उन ख्वाहिशों के आख़िरी बार मरने का
जब कांपती उंगलियाँ ख़तों को आग लगाती हैं.
राख बन चुके कागज़ में
कुछ देर तक चमकते हर्फ़
इस अंतिम संस्कार में
मंत्रोच्चार करते हैं.
कौन कहता है लड़कियाँ चिताएं नहीं जलातीं?
लड़के प्रैक्टिकल होते हैं
फाड़ कर फेंक देते हैं ख़तों को
और पुरानी ख्वाहिशों से छुटकारा पा लेते हैं.
उनके हिस्से आया है सिर्फ
शरीर फूंकने का अधिकार.
अपनी-अपनी तकलीफ़ें हैं, दर्द हैं, जिम्मेदारियां हैं.
ख्वाहिशें भी हैं!