Friday 10 August 2018

धीरे से गाँठ सुलझाना


एक फिसलन भरा एहसास लौट आता है 
मेरे हाथों से छूटते तुम्हारे हाथों का 
एक हल्की सी सिहरन भी याद आती है
या वहम था मेरी उँगलियों के पोरों का?

बहुत दूर  तक दिल ने पलट-पलट देखा
नज़र में भाप बन नमी जो उमड़ आयी थी!
कोई ख़ामोश मगर तल्ख़ सा सवाल लिए
निगाह एकटक ठहरी सी नज़र आयी थी.

बड़ा अज़ब सा है सवाल, मगर है तो सही 
जाने क्या तुमने मुझे खोके पा लिया होगा?
ज़रा पुरानी गठरियाँ टटोल कर देखो  
छिपा के मुझसे क्या खुद को बचा लिया होगा?

जाने क्या हो छिपा, धीरे से गाँठ सुलझाना
महज ख़याल नहीं, याद का ख़जाना है.
जैसे हो रेशमी एहसास इसे छूने का
बड़ा महीन ये लफ़्ज़ों का ताना-बाना है.

Thursday 2 August 2018

ऐसे लम्हों को बाद में अक्सर

अगर हों बंद दिल के दरवाजे,
चाहे कितना हसीन लम्हा हो
जेहन में आ कभी नहीं सकता
दाखिला पा कभी नहीं सकता

ऐसे लम्हों को बाद में अक्सर
मुस्कुराने का काम मिलता है
पुराने हर्फ़ रो उठें तो उन्हें -
चुप कराने का काम मिलता है