Friday 29 April 2011

जो साथ चल रहा था

 मैं पिछड़े मोड़ पर ही खुद को छोड़ आया था
 जो साथ चल रहा था, सिर्फ तेरा साया था

 न रास्ता, कोई मंजिल, न रोशनी, न चिराग
 मुझे  यहाँ  तो  तेरा  प्यार  खींच लाया  था

 तमाम रिश्तों की चादर पहन के सोया था
 किसी की अजनबी आवाज ने जगाया था

 मेरे लबों को वो नगमा कभी न भूलेगा
 सफ़र में साथ जिसे हमने गुनगुनाया था

(03.07.2000)

Wednesday 27 April 2011

मेरी बच्ची..... बिटिया ना बन के पैदा हो



तू मेरी गोद में आएगी तो महकेगी ज़मीं  
गुंचे हर सिम्त खिले मुझको नज़र आयेंगे
मेरी  आँखें  न  तुझे  देखती भर  पाएंगी 
मेरी  रूह  में  तारे  से  बिखर  जायेंगे

खड़ी रह जाऊंगी साकित, जो तुझे देखूंगी 
नन्हें क़दमों से कभी ख़ुश-ख़िराम चलते हुए 
पहली पायल जो तेरे पावों में पहनाउंगी 
तवील नगमे छम-छम सुनूंगी बजते हुए

और  हर  रोज़  बड़ी  होते  तुझे  देखूंगी
कोई दिन बेटी सहेली सी नज़र आएगी
खेलते-खेलते बचपन तेरा इस आँगन में
बीत जायेगा, जवानी भी निखर आएगी

हसीं अरमान हरेक मां के दिल का होता है
मैंने भी  तेरे लिए  लख्ते-जिग़र, देखा है
भले ही जाएगी मुझको रुला के सौ आंसू
तेरी शादी का हसीं ख़्वाब, मगर  देखा है

मगर मैं बैठी हुई सोच  रही हूँ  क्या-क्या
मेरी बच्ची, ये सारे ख़्वाब शबगुज़ीदा  हैं 
मैं  बदगुमानियों  में  जी  रही  हूँ, वरना
मेरी बच्ची, ये  तमन्नाएँ  ग़मगुज़ीदा हैं 

यहाँ हमल में खुर्दबीनें सख्त पहरे पर
तुझे नसीब ना होगी सहर, मेरी बच्ची 
यहाँ ना इंतेज़ार  है किसी को बेटी का
मार ही देंगे तुझे मुख़्तसर, मेरी बच्ची 

बड़ा संगीन दौर  है  कि क्यों तुझे जन्मूँ
हवस-पसंद निगाहों के सिलसिले हर सूं
मेरी नूरे-नज़र, बिटिया मेरी, न पैदा हो
मैं ऐसे दौर में क्या  नेमतें तुझे बख्शूं

अजीब  दौर  है,  इस  दौर  का  बयां  कैसा
मेरी बच्ची, यहाँ औरत है जिंस, बिकती है
अजीब  दौर है,  ना  मां, बहन,  ना  बेटी  है
मेरी बच्ची, यहाँ औरत है जिस्म, बिकती है

तू  इंतेज़ार  कर,  बच्ची  मेरी,  ना  पैदा  हो
अभी इस वक़्त में बिटिया ना बन के पैदा हो
 - - - - - - - --  - - -  - -  - -- --- - - ---
(27.04.2011)

सिम्त - दिशा 
साकित  - ठिठकी हुई 
ख़िराम - धीरे 
तवील - लम्बी 
लख्ते-जिग़र - जिग़र का टुकड़ा 
शबगुज़ीदा  - रात की डसी हुई 
हमल - गर्भ 
खुर्दबीनें - microscope / ultrasound  
जिंस - सेक्स

कब तलक


कब तलक बारूद-बम, बन्दूक-गोली, कब तलक
कब तलक रोती हुई ये ईद-होली, कब तलक
कब तलक पाजेब टूटी, चुप ठिठोली, कब तलक
कब तलक ये चाक-चिलमन, राख डोली, कब तलक

मंदिरों में हिचकियों का शोर यूँही, कब तलक
मस्जिदों में सिसकियों का जोर, यूँही कब तलक
खून में लिपटी उठेंगीं भोर यूँही, कब तलक
मुर्दा चेहरा  शाम होंगी और यूँही, कब तलक

कब तलक आँखों में होंगी मौत की परछाइयां
कब तलक सहमी रहेंगी गाँव में पनहारियाँ
कब तलक बुझती रहेंगी हुस्न की रानाइयां
कब तलक ठहरी रहेंगी इश्क की अंगड़ाइयां

दुल्हनों की मांग कब तक यूँही पोंछी जाएँगी
कब तलक बहता रहेगा आती नस्लों का लहू
कब तलक उठती हुई फसलों को रौंदा जायेगा
कब तलक तारी रहेगा जिस्मों-जां पे ये जुनूं

बस जरा सी बात पर इतना फ़साना हो गया



आज हर सूं शोर है कि मैं दीवाना हो गया
बस जरा सी बात पर इतना फ़साना हो गया

इस शहर में दिल मेरा लगता नहीं हरगिज मगर
जा नहीं सकता कहीं रिश्ता पुराना हो गया

(03.06.1990)

मत बात करो सपनों की तुम



मत बात करो सपनों की तुम
क्या दुनिया में कुछ और नहीं

ये स्वप्न सत्य से दूर कहीं
मन को भटकाया करते हैं
पूरी न कभी जो हो सकती
वो आस जगाया करते हैं
गर इन सपनों के हो बैठे
गर इन सपनों में खो बैठे
तो नयन-नीर के सिवा कहीं मिल सकता तुमको ठौर नहीं

जो स्वप्न देखने हों तुमको
तो उठो नवल-निर्माण करो
रीती आँखों में आंसू भर
मानवता को जलदान करो
जिस घड़ी मनुज मुस्काए कहीं
समझो स्वप्नों का नगर वहीँ
वर्ना समस्त स्रष्टि भर में स्वप्निल राहों का छोर नहीं

मुझको तो चलना है


मुझको तो चलना है मैं तय कर चुका
अब नहीं बस में किसी के रोकना है

और कितनी देर का बाकी है रस्ता
ये नहीं मंजिल से पहले सोचना है

राह में बाकी हैं कितनी और मुश्किल
सामना कर के ही अब तो देखना है

अपनी असफलता के कारण खुद में ढूंढो
व्यर्थ औरों में कमी को खोजना है

मृत्यु-मंथन से सुलभ जीवन-सुधा है
व्यर्थ यारों मृत्यु की आलोचना है

जब समय आएगा तब सरसेगी धरती
खाली कब जाता धरा को सींचना है

दोस्त तेरी आँख का हर एक आंसू
मुझको इस दिल की तहों में सोखना है

गलतियों का मुझको कोई ग़म नहीं
गलतियों से ही मुझे तो सीखना है

क्योंकि मैं इंसान हूँ,  पत्थर नहीं
चोट खाता हूँ तो लाजिम चीखना है

इस धरा का रंग इतना लाल क्यूँ है
अपने पुरखों से हमें ये पूछना है

ज़िंदगी तो झूठ है अब मरके हमको
कम-से-कम एक बार तो सच बोलना है

(22.03.1992)

चुपचाप जल कर

 दिए की लौ में भी रोशनी तभी तक है
 जब तलक जलती रहे ख़ुदी उसकी
 उसका वजूद एक एहसास सा है उसके लिए
 कभी ख़ामोश फ़िजाओं में या कभी तन्हाई में

 वो लौ जो तड़पती है, चटखती है, हरपल
 वो रोशनी याद रखो, देती नहीं अंधियारों में
 चुपचाप जल कर ही मिट पाती है रात की स्याही
 कभी ख़ामोश फ़िजाओं में या कभी तन्हाई में  

तू मुझे याद रख, मैं चाहूं तुझे, काफी है

 क्योंकि फिरता हूँ आवारा मैं वीरानों में
 इसलिए डरता हूँ आ जाऊं न दीवानों में

 उनसे पहचान का आलम फ़क़त है इतना अभी
 कि गिना करते हैं हमको भी वो अनजानों में

 तू मुझे याद रख, मैं चाहूं तुझे, काफी है
 क्या हुआ जो आ सके न हम फ़सानों  में  

एक परवाने के मिट जाने का ग़म

 एक परवाने के मिट जाने का ग़म
 हाय! शम्मा रात भर जलती रही

 फूल इक जिस शाम को मुरझा गया
 उस सुबह फिर इक कली खिलती रही

 ये भी चाहा छोड़ जाएँ ये जहाँ
 ज़िंदगी की आस भी पलती रही

 रोशनी के दीप भी जलते रहे
 और ग़म की छाँव भी हिलती रही 

 झूठ बोला तो ज़माना ख़ुश हुआ
 जब भी सच बोला जुबां सिलती रही

(03.06.1989)

बंधन तो दर्पन है

 मैं ही था पागल जो
 पानी में चंदा को
 देखा तो उसको ही सच का समझ बैठा
 पानी की बूंदें दो
 दामन में बिखरी तो
 सारे ही बादल को अपना समझ बैठा

 ऐसा नहीं होता
 हरगिज नहीं होता
 सपना तो सपना है, अपना नहीं होता
 अश्कों में ढल कर के
 हाँ, यूँ ही निकलेंगें
 आँखों में सपनो का बसना नहीं होता

 ऐसा नहीं करते
 हाँ-हाँ नहीं करते
 सपनों में रिश्तों को जोड़ा नहीं करते
 रिश्ते जो सच्चे हैं
 वो खुद ही जुड़ते हैं
 पागल से होकर यूँ दौड़ा नहीं करते

रिश्तों में तन-मन है
 तन-मन का बंधन है
 बंधन ये ना  टूटे, बंधन तो दर्पन है
 ऐसे ही रहना है
 अब यूँ ही बहना है
 जीवन ही धारा है, धारा ही जीवन है


Tuesday 26 April 2011

फ्लैट्स (नैनीताल)

जबरदस्त बारिश है...
कोहरा है कि बादल है....
अभी तो यहाँ से मंदिर भी नहीं दिखता...
न कैपिटोल का पता चलता है...
भीगता-भीगता सा मैं अपने फैलाव में सिमटा हुआ हूँ....

सर्दी का मौसम है...
चाईना पीक पर बर्फ है ...
उसकी ठंडक मुझ तक पहुँच रही है....
कोई-कोई इक्का-दुक्का सैलानी आता है...
ज्यादातर दुकानें गायब हैं...
चाय वालों के सिवा...
अब तो तिब्बतियों के बच्चे भी फुटबाल नहीं खेल रहे....
अजब सिहरन है...

हाँ, अब स्कूल, कॉलेज खुल गए हैं...
ठण्ड तो है...
पर घूमने लगे है बच्चे, बुजुर्ग, जवान....
और बाहर से आये जोड़े भी..
सज गयी हैं दुकानें ....
मैच भी हो रहे हैं...
अब मुझे अच्छा लग रहा है....
भाग रहे हैं लडके मुझ पर...

धूप खिली हुई है....
इतनी भीड़!!!!!
गलियारों में धक्कम-धक्का ....
नैनीताल के बाशिंदे बच-बच कर निकल रहे हैं...
दुकानें अब चीख रही है....
मोमबत्तियों तक के सुर निकल आये हैं...
अच्छा....!!! सीजन है?
तो स्वागत है......... सबका...
लेकिन मेरी छाती पर ये काले-काले टायर !!!
मुझे कुचल रहे हैं....
कुछ देखने नहीं देते...
मैं भी तुमसे मिलना चाहता हूँ....
मेरी भी नैनीताल में एक पहचान है......
यहाँ का बचपन मुझी पर दौड़ कर जवान होता है.....

मैं फ्लैट्स हूँ......... पार्किंग लाट नहीं हूँ.....
मुझे बख्शो ....

...
...

चल कर क्यूँ नहीं आते मुझ तक ....??


(26.04.2011)

बस यूँ ही

 जैसे क़दमों के हाथ में मेरा मुकद्दर हो
 उलझ रहा था फ़ासलों के साथ, बस यूँ ही

 न कोई रास्ता, मंजिल और न कोई चिराग़ 
 भटक रहा था काफ़िलों  के साथ, बस यूँ ही

(03.07.2000)

Monday 25 April 2011

ज़रूरी तो नहीं है

हर उम्मीद शक्ल ले ये ज़रूरी तो नहीं है
हर ताल्लुक़ बन जाये ये ज़रूरी तो नहीं है

कुछ पैगाम रह जाते हैं क़ासिद के ही क़रीब
हर पयाम पहुँच जाये ये ज़रूरी तो नहीं है

कुछ बात खुल के हो नहीं पाई जो गए रोज़
वो आज हो ही जाये ये ज़रूरी तो नहीं है

जो सिलसिला हसीन बन तो सकता था
वो आज जुड़ ही जाये ये ज़रूरी तो नहीं है

Sunday 24 April 2011

ठंडी सड़क

झील है, धुंध है, ख़ामोशी है
धूप है, नाव हैं, किलकारी है
एक चलती हुई सड़क भी है
और हम सब हैं

दूर वो घंटियाँ सी बजती हैं
छोटी-छोटी दुकानें सजती हैं
पल दो पल को निगाहें टिकती हैं
और हम सब हैं

भीड़ हर शाम को उमड़ती है
रोशनी झील में दमकती है
आसमानों से बात करती है
और हम सब हैं

मॉल पे साथ-साथ चलती हैं
नजरें मिलती हैं, ख्वाब बुनती हैं
दो दिलों की उम्मीदें पलती हैं
और हम सब हैं

पहाड़ी चोटियाँ बहुत ऊँची
पेड़ों की टहनियां बहुत नीची
झील में दोनों मगर हैं दिखती
और हम सब हैं

एक गुमसुम सड़क है ठंडी सी
समां उदास, हवा सीली सी
ज़िस्म छिपता सा, रूह बचती सी
वहां कोई नहीं है ……..



(25.04.2011)

Saturday 23 April 2011

कौन सी शबनम का पानी

 दास्ताने-ग़म हमारी क्या करोगे जान कर
 भीगी आँखों की कहानी, क्या करोगे जान कर

 रात भर दिल की ज़मीं को प्यार से छूता रहा
 कौन सी शबनम का पानी, क्या करोगे जान कर

  सांस टूटेगी मेरी तो टूट कर रह जाएँगी
 कितनी उम्मीदें पुरानी, क्या करोगे जान कर

 डूब कर इक बार जिनमें हम न साहिल पा सके
 ऐसी मौज़ों की रवानी, क्या करोगे जान कर

(16.07.2000)

बेचैनी

रूह  में ख़ला है,  एहसास  में  ख़लल है
बेचैन हसरतों का, हर सांस पे दखल है...

(2004)

Friday 22 April 2011

दोस्त मेरे अब की बारिश में मेरा घर देखना

 झूम कर उठती हुई लपटों का मंजर देखना
 दोस्त मेरे अब की बारिश में मेरा घर देखना

 क्या पता किस ठौर, किस रस्ते में मंजिल खो गयी
 अब पड़ेगा चक्रव्यूहों से गुजर कर देखना

 आदमियत ने शक़ल बदली है इस अंदाज से
 हर कोई अब चाहता है रूख बदल कर देखना

 मुझको ये मालूम तो है वक़्त नामाकूल है
 चाहता हूँ वक़्त से एक बार लड़कर देखना

1996

हसरत

 रूहे-ज़ख़्म-आलूद की हसरत है कह दे अलविदा
 जल रहा था जो  चरागाँ, वो भी अब बुझने लगा

 पंख  नश्तर-ऐ-सबा  रख  देगा उसके काटकर
 आसमां  की  ओर  नन्हा  जो परिंदा  था उड़ा

 धूप  के  हाथों  में हैं  परछाइयों   की किस्मतें
 आबशारों से  निकाह  चिंगारियों  का हो  रहा

 गर्द सी एक थम रही है दिल की धरती पर यहाँ
 यादगारों  पर  हुई  हैं  वक़्त  की  परतें  जमा

 मैंने तब पूछा शहर में आग किसके घर लगी
 जब मेरे  घर की  दीवारों से धुंआ उठने लगा


(21.07.1997)

मुन्ने तेरे सपने बड़े हों



आज तेरी मुस्कराहट घूमती घुटनों के बल
 और तेरी आँखों में झिलमिल जगमगाता तेरा कल  
 कल चलेगा तू जहाँ में थाम कर उंगली हमारी  
 या कभी हमको बना घोडा करेगा तू सवारी 
 हीरे-मोती तेरी आशा पे उमंगों के जड़े हों  
 ये सुकोमल पाँव तेरे एक दिन जम कर खड़े हों  
 और क्या आशीष दें, मुन्ने तेरे सपने बड़े हों  
 हाँ मेरे नन्हे, मेरे मुन्ने, तेरे सपने बड़े हों    

(inspired by a poem by Dushyant Kumar)

Thursday 21 April 2011

ये मेरे ख़यालों की मंजिल नहीं है

 ये रंगीन महफ़िल, ये रोशन चरागाँ
 ये सागर छलकते,  ये दौरे-बहारां
 ये कदमों की थिरकन, खरामा-खरामा
 ये मेरे ख़यालों की मंजिल नहीं है
 नहीं है, नहीं है, नहीं है, नहीं है

 मैं शामिल हूँ इस जश्न में, पर नहीं हूँ
 न अब मैं यहाँ हूँ, न अब मैं वहीँ हूँ
 नहीं कुछ पता मैं कहाँ हूँ, कहीं हूँ
 ये मेरे ख़यालों की मंजिल नहीं है
 नहीं है, नहीं है, नहीं है, नहीं है

 यहाँ आज हर बात ठहरी हुई है
 यहाँ हर मुलाकात ठहरी हुई है
 यहाँ आज की रात ठहरी हुई है
 ये मेरे ख़यालों की मंजिल नहीं है
 नहीं है, नहीं है, नहीं है, नहीं है

 अगर मैं यहाँ हूँ तो तेरे लिए हूँ
 अगर गा रहा हूँ तो तेरे लिए हूँ
 मैं जो कह रहा हूँ, तेरे लिए हूँ
 ये मेरे ख़यालों की मंजिल नहीं है
 नहीं है, नहीं है, नहीं है, नहीं है

 मेरे दिल में है बेकरारी मसलसल
 मेरे जिस्मों-जां पे तारी है हलचल
 मेरे दोस्त मुझको कहीं और ले चल
 ये मेरे ख़यालों की मंजिल नहीं है
 नहीं है, नहीं है, नहीं है, नहीं है

(19.07.2000)

Wednesday 20 April 2011

धीरे से आ

धीरे  से  आ, आहट  न  होने  पाए  कोई
जग  जाये  न कहीं, दर्दे-जिग़र सोता है


न चुभती बात करो, आज न हो, कल हो भले
ऐसे   नश्तरों   का  दर्द,  मगर  होता   है

चला ही जा रहा है कारवां कहाँ आखिर?

चला ही जा रहा है कारवां कहाँ आखिर?

किसी को क्या पता जिस्मों की इस रवानी में
कितनी रूहों ने साथ छोड़ा है?
बूँद का रेत में धीमे से जज्ब हो जाना
कुछ इस अंदाज में ही वक़्त की सियाही ने,
उम्र की राह पे अपना निशान छोड़ा है

तमाम जिस्म जो शामिल हैं इस रवानी में
भला कोई उनमें खरीदार यहाँ है कि नहीं?
कोई है जो अपने साथ लेके आया है
अपनी उम्र का, एहसास का हिस्सा थोडा,
चंद गफलत भरे अलफ़ाज के एवज ही सही
बेच तो दे, पै ऐसा कोई बाज़ार नहीं

उस मुसाफिर की राह कितनी तंग सही
फिर भी छोड़े हैं उसने जलते हुए पैरों के निशां
कई आतिश-फ़िशां हैं दफन जिन निशानों में
धूल की पर्त तले सुलगते हैं फफोले अबतक
ताकि फिर कोई गुजरे इधर से भूले से
तो उनकी गर्मी से मालूम उसको हो जाये
कोई गुजरा है अकेला इधर से पहले भी
जो अपने जिस्मों-जां का खून कर गुजरा है

छिड़क के खून वही वो उफ़क के दामन पर
कह रहा था चीख-चीख कर ज़माने से
आने वाली सुबह का मेरे हाथों क़त्ल हुआ

(12.03.1993)

तो अच्छा था

 पहुँच तो जाऊँगा मंजिल पे अपनी यूँ भी मैं लेकिन
 सफ़र में साथ हो जाता तुम्हारा भी, तो अच्छा था

 समंदर में जो कश्ती डूबी थी टकरा के तूफां से
 उसे इक बार मिल जाता किनारा भी, तो अच्छा था

 खुदा मेरे कोई ज़न्नत तो तुझ से थी नहीं मांगी
 अरे अपना जो चल जाता गुजारा भी, तो अच्छा था

 कहीं  आँखे  न  पथरा  जाएँ  तेरी  इंतजारी  में
 इधर इक बार हो जाता इशारा भी, तो अच्छा था

 खड़ा साहिल पे साहिल सोचता है देख कर लहरें
 मुझे तिनके का मिल जाता सहारा भी, तो अच्छा था

(30.01.91)

Sunday 17 April 2011

सुबह तो कल फिर आयेगी

 सूरज के छिप जाने पर भी
 संध्या के घिर आने पर भी
 घोर तिमिर गहराने पर भी
 मत रुकना, तू चलते रहना, सुबह तो कल फिर आयेगी

 एक कुसुम मुरझाये अगर तो कली हजारों  खिलती हैं
 एक निराशा के दामन में लाख उम्मीदें पलती हैं
 एक ज़रा सी बाधा आयी और रूक गए कदम तुम्हारे
 किसी सहारे की आशा में, तुमने इतने नाम पुकारे
 रस्ते में रुक जाने वाले
 मुश्किल से घबराने वाले
 मंजिल न चुन पाने वाले
 एक बार फिर कोशिश कर ले, मंजिल मिल ही जायेगी

 मत सोचो कि साथ तुम्हारे, कोई सफ़र में चला नहीं
 मत सोचो कि दीप तुम्हारे लिए डगर में जला नहीं
 पथ में कांटे जहर भरे यदि बिछे हैं तो मुस्काता जा
 अंधियारी राहों में आशाओं के दिए जलाता जा
 क्रम सांसों का जारी जब तक
 दम पैरों में बाकी जब तक
 तम रजनी का बाकी जब तक
 तब तक चलते रहना, खुद ही राह निकलती जायेगी

मत रुकना, तू चलते रहना, सुबह तो कल फिर आयेगी

(1998)

Saturday 16 April 2011

कहूं क्या, कूचा-ए-दिल में ये किससे कौन मिलता है


कहूं क्या, कूचा-ए-दिल में ये किससे कौन मिलता है
मेरा ही साया, मेरे ही तसव्वुर से मुक़ाबिल है

रायगाँ वक़्त क्या करना भला माज़ी के किस्सों में 
न अब सुनने से कुछ होगा, न कुछ कहने से हासिल है

चलो अच्छा हुआ कि हम चराग़ों को बुझा आये 
ये अब जाना, नहीं ये घर मेरा, जलने के क़ाबिल है

न कश्ती अब उतारो तुम ख़यालों के समंदर में 
न ये कश्ती वो कश्ती है, न ये साहिल वो साहिल है
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कूचा-ए-दिल - दिल की गली
तसव्वुर - कल्पना 
रायगाँ - व्यर्थ 
माज़ी  - बीता हुआ कल

Friday 15 April 2011

बस कि तुम लौट गए एक ही दस्तक दे कर


कितनी  मुश्किलें   आयीं   दुबारा   मिलने में
बड़ी  मुश्किल  से आयी बात  ये भी  कहने में

बस कि  तुम लौट  गए एक  ही दस्तक  दे  कर 
वक़्त कुछ मुझको भी ज्यादा लगा निकलने में

काश ! एक   बार   तुमने    और   पुकारा   होता
तुम  थे  जल्दी  में शायद  और  हम सिमटने में

अज़ब   नहीं  कि   कोई   बात  हो नहीं   पाई
जो भी  कहना था, मैं  रह गया  वो लिखने में

न  कोई  ख़त,  न  अब  बाकी  ख़तूत  है  कोई
कि  सर्द  रातों में  काम आ  गए वो  जलने में

Wednesday 13 April 2011

मेरी नींदों में गुज़र


इतनी नफ़रत ही तेरे पास नहीं है प्यारे
कि मेरे इश्क़ का तू जोर घटा दे प्यारे

कैसे रोकेगा मेरे ख़्वाबों की परवाज़ बता 
मेरी नींदों में गुज़र तेरा नहीं है प्यारे

तूने जिस दर पे सरे-शाम से दस्तक दी है
बाहें फैलाये खड़ा था वो सुबह से प्यारे

ये सच है कि दलीलों में वज़न तेरी बहुत है
पर दिल का मुकदमा है, कोई क्या करे प्यारे

है तू जो समंदर भी तो ठहरा ही हुआ है
है पास हुनर बहने का, क़तरे के ही प्यारे 

इल्ज़ाम मुझे रुस्वां कर सकते नहीं तेरे 
हम अपनी वफ़ाओं के साए में हैं प्यारे
----
परवाज़  - उड़ान 

भूल गया हूँ

खोया हुआ हूँ ऐसे मैं अपनी ख़ुदी  में  
मैं हाथ मिलाने का अदब भूल गया हूँ 

फिर मुझको कोई नन्हा सा बच्चा बना दे  
मैं दिल की मुहब्बत की तलब भूल गया हूँ

तपते हुए नगमों को गाता था कभी मैं
फ़िलहाल तो अपने वो लब भूल गया हूँ

हिन्दू हूँ किसी रोज़ तो मुस्लिम हूँ किसी शब
इन्सां मगर होने का सबब भूल गया हूँ

दौलत की तलब है, मुझे इशरत की हवस है
सरमाये की इस होड़ में रब भूल गया हूँ

भूलेंगें न तुमको कभी वादा तो किया था
उलझन में गमे-ज़ीस्त की सब भूल गया हूँ  
कद मेरा भी ऊंचा है इस शहर में यारो
यहाँ आके बैसाखी का परब भूल गया हूँ

Monday 11 April 2011

इल्तिजा

 बड़ी उम्मीदों से चराग एक जलाया है 
 कम से कम आज की रात इसे जलने दो

 रात आयी है जैसे, चली भी जाएगी
 राहे-गर्दिश पे सितारों को यूँ ही चलने दो

 गर पीते रहे यूँ ही तो घुटते जाओगे
 अश्क दो-चार तो आँखों से अपनी ढलने दो

 मिलेगा क्या गिरा के बार-बार मुझे
 ठोकर एक ही काफी है, अब संभलने दो

 रहम मौजों पे खाओ, बाँध थामने वालो
 उन्हें साहिल की तुम नज़र  में पलने दो

(16.06.1989)

Friday 8 April 2011

वसंत

 ये जीवन पतझड़ का मौसम, अब वसंत आ जाने दो

 प्रियतम तेरे नेह-घटक बिन
 अँखियाँ अश्रु की पनिहारिन
 बिन तेरे आँचल में सिमटी
 क्वांरी पीड़ा बनी अभागिन
 चूनर कुम-कुम हो जाने दो, उम्र सुहागिन हो जाने दो
 ये जीवन पतझड़ का मौसम, अब वसंत आ जाने दो

 विरह-निशा आँखों में बीती
 आशा की मदिरा भी रीती
 तुमको सौ-सौ बार पुकारा
 फिर भी सूनी मन की वीथी
 अधर-अधर से मिल जाने दो, प्रेम-सुमन खिल जाने दो
 ये जीवन पतझड़ का मौसम, अब वसंत आ जाने दो

(15.02.1997)

Thursday 7 April 2011

मेरी आँख में क्या बारिशें नहीं देखीं ?

 मेरे दिल को कह के संग चले जाते हो
 मेरी आँख में क्या बारिशें नहीं देखीं ?


 घटाओं के हसीं मंजर अजीज हैं तुमको
 बर्क की क़ातिलाना  साजिशें नहीं देखीं ?


 सुबह से शाम तलक ख़्वाब ही देखे तुमने
 हकीक़त बनने वाली ख्वाहिशें नहीं देखीं ?


 ग़मों को देखा बेशुमार हर तरफ तुमने
 ख़ुशी को तौलती पैमाईशें नहीं देखीं ?


 तुम्हें नफ़रत है मुझसे मानता हूँ लेकिन
 प्यार बरसाने की गुंजाइशें नहीं देखीं ?


 जगा रही है लहर इक छोटी साहिल को
 खरामा छू के करती काविशें नहीं देखीं ?


(16.06.1989)

Wednesday 6 April 2011

तलाशे-ख़ामोशी

 बड़ी ही सरकश है फ़ितरत उम्र की मौज़ों की
 दौरे-ग़र्दिश में कुछ कहने की सतवत मना है
 यहाँ वो आयें जिनको हो तलाशे-ख़ामोशी
 मेरी रूहे-शिकश्तां  को बड़ा ख़ौफे-सदा है


Rebellious by nature are the waves as i see them in sea of my life
One is often denied, in such times of misfortune,  the dignity to preach,
Welcome you are, O seeker of silence, if only you are one
Scared of voices as we are - the pieces of my shattered soul beseech 

Monday 4 April 2011

दोस्त

बहुत दिनों के बाद आज मिला है मुझको
वो मेरा दोस्त जो बिछड़ा था, मगर याद रहा

जैसे पत्तों से बारिश का ढलकता पानी
दिन चढ़े अलसाई हुई आँखों से जुदा ख़्वाब
किसी बच्चे के हाथ से छिटका हुआ बैलून
लाख कस के दबाई हुई मुट्ठी से गिरी रेत
........ यूँ ही वक़्त फ़िसल बैठा गिरफ्तों से मेरी

कितना चाहा कि पलट छू लूँ, रोकूँ उनको
जो मेरे दोस्त मुझसे दूर हुए जाते हैं
मगर रुका न कोई और ख़ुद मैं भी न रुका
मानिंद-ए-ख़ुशबू हवा में बिखर गए सारे
 ......... कहाँ नहीं हैं आज मेरे हमकदम देखो

डूब कर गहरे, शबो-रोज की हैरानी में
फ़तह कर तो लिया हमने ये मुक़ाम-ओ-जहाँ
रुके जो सांस लेने को तो भला क्या पाया
किसे कहें कि मेरे दोस्त चल, ख़ुशी बांटें
 ...... कि यहाँ पहचान बहुत है मगर अहबाब कहाँ

वक़्त की धुंध यकायक जो हटी है इस पल
फिर हमें दोस्त मिले आज कई बरसों बाद
लिपट-लिपट के यूँ फिर आज बात करते हैं -
किसी से  लफ़्ज  लिपटते हैं, किसी से बाहें
 ........ शुरू फिर आज सिलसिला-ऐ-गुफ़्तगू होगा

तुझे जो देख के खिल उट्ठा है भीतर-भीतर
अट्ठारह-बीस की उमर है, या मैं ही हूँ
अक्स तेरा भी वही है, चंद शिकनों के सिवा
नक्श ये बीस बीते बरसों के नुमायाँ हैं
 ........ कुछ तो लाजिम है थकन का भी दिखाई देना

कहीं पे बैठ के फिर धूप सेंकते हैं चल
उम्र कुछ घट सी गयी है, क्यूँ भला लगता है
बात भी थोड़ी लड़कपन में कही लगती हैं
भूल फिलवक्त के हम-तुम हुए  हैं उम्रदराज
 ............ चंद लम्हात हैं ये सिर्फ हमारी खातिर

कि फिर कल से वही होगी तगो-दौ ज़ारी
उससे पहले जरा इस रूह को ताज़ा कर लें
वर्ना बेसाख्ता ये भागती-चलती दुनिया
एक नया रूप दिखायेगी फिर गए कल का
 .......... और फिर जाने कहाँ मैं, कहाँ पे तू होगा

जा ऐ दोस्त मगर इस बार ये वादा कर जा
जिंदगी की जद्दो-जहद दूर भले ही रक्खे
इस भीड़ में खो जाने को कहती तो रहे
अपनी कोशिश में कामयाब ना होने पाए
 ........... जेहन में सलवटों की अब तो गुंजाईश भी नहीं

बहुत दिनों के बाद आज मिला है मुझको
वो मेरा दोस्त जो बिछड़ा था, मगर याद रहा