Monday 26 March 2012

ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?


ख़्वाब के झरोखों पे धूप-छाँव तारी है                 
बेरहम उदासी है, बेसबब खुमारी है 
आँधियों में जिस तरह तितलियाँ बिखरती हैं 
हसरतों के पंखों का टूटना भी जारी है
दूरियों का आ जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?  

तल्खियों से हो गए रूबरू, मुकद्दर है
बेकरार लम्हों का बेसुकून मंजर  है 
चश्मे-नम की घाटी में दर्द का समंदर है
बूँद-बूँद छलका है, बेपनाह अन्दर है
हंस के यूँ रुला जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

तुम नहीं तो देखना ख़ुदको, हासिल ही नहीं
ज़िस्म से जुदा-जुदा रूह, शामिल ही नहीं
एक सरापा ख़ामुशी, कोई महफ़िल ही नहीं
धड़कनों के शोर  के दिल ये क़ाबिल ही नहीं
हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

Tuesday 20 March 2012

वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ


यकीन मुझपे नहीं है तो राहगीर से पूछ
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

भले मैं एक नख्ले-खुश्क-ए-सहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

कुएं की सिल पे निशां मैं कोई गहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

भले ही आसमां में माह सा ठहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

मैं अश्के-वक्ते-सफ़र आँख में उतरा ही सही  
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
 
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नख्ले-खुश्क-ए-सहरा  : रेगिस्तान में एक सूखा पेड़
माह : चाँद
अश्के-वक्ते-सफ़र : सफ़र पे जाते समय (महबूबा की आँख) का आंसू

Tuesday 13 March 2012

अब दर्द से, तक़लीफ़ से रिश्ता नहीं कोई

अब दर्द से, तक़लीफ़ से रिश्ता नहीं कोई
अच्छा भला लगे न पर खलता नहीं कोई 

अब ऐसी मुलाक़ात का किस्सा बयान क्या
दीखता तो रोज़ है मगर मिलता नहीं कोई

मुझको सुबह की आरज़ू क्यूँ कर हुआ करे  
रातों में भी चराग़ जब जलता नहीं कोई

या तो मेरे रुमाल की तासीर ख़ुश्क है
आँखों से या तो अश्क़ ही ढलता नहीं कोई

तारी है बेहिसाब गुल दिल की राह में 
चुपचाप दबे पांव अब चलता नहीं कोई 

दरया के पास रह के भी साहिल में प्यास है
बहने की होड़ में यहाँ रुकता नहीं कोई

Monday 5 March 2012

कुछ रस्ते से भटके लम्हे


कुछ रस्ते से भटके लम्हे
रातों के स्याह अंधेरों के 
गहरे सन्नाटों में आकर
कांधे पे सर रख देते हैं,
और बिलख-बिलख के रोते हैं।

उन लम्हों में होते हैं
कुछ भूले-बिसरे से साथी
कबसे बंद झरोखों से
जिनकी आवाजें आती हैं।

छत पर छुप कर बैठे-बैठे
यादें खुद से उकताती हैं
तब ठंडी आहों पर चढ़ के 
फिर से मिलने आ जाती हैं 
और दिल की आग बुझाती हैं।

रोते-रोते जब ये यादें
बच्चों की तरह सो जाती हैं
कुछ जवां उमर के बीते दिन
आँखों से आँख मिलाते  हैं,
कुछ बीते जख्मों की तड़पन
कुछ टूटे रिश्तों की किरचन
कुछ मुस्कानों की टीस लिए
दिल में रहने आ जाते  हैं।

कुछ रस्ते से भटके लम्हे
रातों के स्याह अंधेरों के 
गहरे सन्नाटों में आकर
कांधे पे सर रख देते हैं,
और बिलख-बिलख के रोते हैं ...