ख़्वाब के झरोखों पे धूप-छाँव तारी है
बेरहम उदासी है, बेसबब खुमारी है
आँधियों में जिस तरह तितलियाँ बिखरती हैं
हसरतों के पंखों का टूटना भी जारी है
दूरियों का आ जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
तल्खियों से हो गए रूबरू, मुकद्दर है
बेकरार लम्हों का बेसुकून मंजर है
चश्मे-नम की घाटी में दर्द का समंदर है
बूँद-बूँद छलका है, बेपनाह अन्दर है
हंस के यूँ रुला जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
तुम नहीं तो देखना ख़ुदको, हासिल ही नहीं
ज़िस्म से जुदा-जुदा रूह, शामिल ही नहीं
एक सरापा ख़ामुशी, कोई महफ़िल ही नहीं
धड़कनों के शोर के दिल ये क़ाबिल ही नहीं
हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
man ke gahre bhaavon ko bahut sundar shabdon me dhala hai aapne.umda rachna.
ReplyDeleteहर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ReplyDeleteला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?bahut khoob....
bahut umda rachna,achcha lga padh kar
ReplyDeletebdhiya post!
ReplyDeleteThanks Akhtar ji
Deleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया....बहुत बेहतरीन प्रस्तुति...!
ReplyDeleteThanks Bhaskar ji
Deleteहर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ReplyDeleteनिशाँ तो अब भी हैं ....
इसलिए तो ये नज़्म उतारी ....
Thanks, harkeerat ji
Deletela wajood, mitney mein bhi wajood kayam raha aapkey shabdon se pushpendra ji..lovely
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