Monday, 26 March 2012

ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?


ख़्वाब के झरोखों पे धूप-छाँव तारी है                 
बेरहम उदासी है, बेसबब खुमारी है 
आँधियों में जिस तरह तितलियाँ बिखरती हैं 
हसरतों के पंखों का टूटना भी जारी है
दूरियों का आ जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?  

तल्खियों से हो गए रूबरू, मुकद्दर है
बेकरार लम्हों का बेसुकून मंजर  है 
चश्मे-नम की घाटी में दर्द का समंदर है
बूँद-बूँद छलका है, बेपनाह अन्दर है
हंस के यूँ रुला जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

तुम नहीं तो देखना ख़ुदको, हासिल ही नहीं
ज़िस्म से जुदा-जुदा रूह, शामिल ही नहीं
एक सरापा ख़ामुशी, कोई महफ़िल ही नहीं
धड़कनों के शोर  के दिल ये क़ाबिल ही नहीं
हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

10 comments:

  1. man ke gahre bhaavon ko bahut sundar shabdon me dhala hai aapne.umda rachna.

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  2. हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
    ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?bahut khoob....

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  3. bahut umda rachna,achcha lga padh kar

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  4. आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया....बहुत बेहतरीन प्रस्‍तुति...!

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  5. हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

    निशाँ तो अब भी हैं ....
    इसलिए तो ये नज़्म उतारी ....

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  6. la wajood, mitney mein bhi wajood kayam raha aapkey shabdon se pushpendra ji..lovely

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