रातों के स्याह अंधेरों के
गहरे सन्नाटों में आकर
कांधे पे सर रख देते हैं,
और बिलख-बिलख के रोते हैं।
उन लम्हों में होते हैं
कुछ भूले-बिसरे से साथी
कबसे बंद झरोखों से
जिनकी आवाजें आती हैं।
छत पर छुप कर बैठे-बैठे
यादें खुद से उकताती हैं
तब ठंडी आहों पर चढ़ के
फिर से मिलने आ जाती हैं
और दिल की आग बुझाती हैं।
रोते-रोते जब ये यादें
बच्चों की तरह सो जाती हैं
कुछ जवां उमर के बीते दिन
आँखों से आँख मिलाते हैं,
कुछ बीते जख्मों की तड़पन
कुछ टूटे रिश्तों की किरचन
कुछ मुस्कानों की टीस लिए
दिल में रहने आ जाते हैं।
कुछ रस्ते से भटके लम्हे
रातों के स्याह अंधेरों के
गहरे सन्नाटों में आकर
कांधे पे सर रख देते हैं,
और बिलख-बिलख के रोते हैं ...
आप को होली की खूब सारी शुभकामनाये :)
ReplyDeleteनए ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित है पधारियेगा
स्वास्थ्य के राज़ रसोई में: आंवले की चटनी
razrsoi.blogspot.com
आपको भी होली की शुभकामनाएं !
Deleteछत पर छुप कर बैठे-बैठे
ReplyDeleteयादें खुद से उकताती हैं
तब ठंडी आहों पर चढ़ के
फिर से मिलने आ जाती हैं
और दिल की आग बुझाती हैं।
very touching poem..:)
आपका धन्यवाद रूचि
Deleteसमय की ओट से निकले अपोसे ही पल जिन्दा रखते हैं इंसान को ... अच्छी रचना है ...
ReplyDeleteआपका धन्यवाद नासवा जी
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