Sunday, 28 July 2013

मैं सोचता हूँ कि ऐसी कोई ग़ज़ल लिक्खूं

उम्र के आधे पडाव पे रुक कर
मैं सोचता हूँ कि ऐसी कोई ग़ज़ल लिक्खूं
कि जिसमें लहलहाती क्यारियों की रौनक हो
आने वाली नसल के लिए उम्मीदें हों
और ढलते हुए वजूद आसरा पाएं !


वरना बेशक ये डर सताता है
जल्द ही लफ्ज़ मानी खो देंगे
स्याहियां थक के सूख जायेंगी
कलम के हाथ कंपकंपायेंगे
कागजों को भी नींद आएगी
कौन किस्सा बयां करेगी जुबां


मेरे वजूद के होने से और ना होने से
कौन सी बात छूट जाएगी ?

3 comments:

  1. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

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  2. आने वाली नसल के लिए उम्मीदें हों ..
    आवश्यक भी है ..

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