Monday, 24 October 2011

दीवाली मुबारक़ !!







ख़्वाब ग़म के धुंए में गुमशुदा हैं सारे
बेबसी में तमाम आरजुएं खो भी चुकी
अज़ब तारीकियों का चार सिम्त आलम है
थकी हुई थीं, बुझकर शमाएँ सो भी चुकी

कान में भूख सांय-सांय शोर करती है
आँख में जागती नींदों का धुआं सो भी चुका
सुलग रही है आंत फुलझड़ी की मानिंद
आतिशबाजियों का खेल वहां हो भी चुका

उस गली क्यों दीवाली हो के नहीं जाती है
अँधेरा जिस गली सुबहा पे आके छा भी चुका
किसी ख़ुशी की शक्ल, एक रोशनी की किरण
आये, ऐसी उम्मीदों का दिया बुझा भी चुका

छोड़ो! मुश्किल सवाल है, ज़वाब क्यूँ ढूंढें?
अपने बच्चों के लिए हम पटाखे ला भी चुके
रंगोली भर चुकी हैं घर की औरतें, अब तो
हरेक मुंडेर पे घर की दिए जला भी चुके

दीवाली मुबारक़ !!










Wednesday, 19 October 2011

ताकि वर्ष भर दीवाली हो !

घनीभूत हो उठते अन्धकार में
दूर कहीं एक ज्योति:स्फुर्लिंग ने 
तम-आवरण को चीर कर सर उठाया
और सहस्रों प्रकाश-वीथिकाएँ जन्म ले बैठीं !

एक अकेली आलोक-रश्मि 
और अन्धकार से जूझने की इतनी जीजिविषा !
मानो एक आवाहन ..
                                 है निखिल विश्व को उदबोधन
                                कर दो समस्त तम का शोधन...

बस,
अमावस की कालिमा को पल भर में विलोपित करती
कितनी उर्मिलायें तैल-पात्रों में झिलमिला उठीं ?
ज्ञात नहीं 
जैसे अमावस की रात्रि में दसों दिशाओं में सूर्योदय हुआ हो !
यही तो दीपावली की गरिमा, उसका सौंदर्य है !!

आज कोई कोना ऐसा नहीं 
जो प्रकाश-निधि-हीन हो
क्या मनु-पुत्र आज निशा होने ही न देगा?

'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
महाप्राण से ये निवेदन - आज अर्थ खो बैठा है
किधर चलें - नहीं सूझता,
सर्वत्र तो प्रकाश बिखरा है...

तो क्या करें - ठहर जाएँ?

कदापि नहीं.
निमिष भर के इस उत्सव को अंतिम सत्य तो नहीं कह सकते.
अभी चलना होगा....

प्रश्न- कहाँ?
उत्तर - मौन

दूर कहीं .......धूल सी उड़ी  
नन्हे क़दमों की आहट...
कलुष-रहित ह्रदय में 
उष्ण-स्नेह-स्पंदन लिए
वह नन्हा
जिधर जा रहा है - वहीँ चलें

अपने अन्तर्तम की सारी कालिमा, सारा द्वेष समेटें
और छोड़ आयें....
दूर..... क्षितिज के उस पार
ताकि वर्ष भर दीवाली हो !

कल्पना ही सही, कैसी है?

Monday, 10 October 2011

खुले-आम हो रही है, इशारों की बात है!


अंधों से गुफ्तगू है, नज़ारों की बात है 
खुले-आम हो रही है, इशारों की बात है!

छोटा सा मुद्दआ भी हल हो नहीं है पाता
फिर भूख-प्यास प्यारे, हजारों की बात है!

दुल्हन का ज़िक्र कैसा, नीलाम पे है डोली 
इस मुल्क में फ़क़त उन, कहारों की बात है! 

दरिया सिमट के जिनकी तामीर हो रही है
बस्ती की हद पे छाते, किनारों की बात है!

हम सर झुका दें जाके सज़दे में, ऐसी कोई 
रूहें यहाँ नहीं बस, मज़ारों की बात है!


अब क्या कहें कि बातें, कुछ बोलती नहीं हैं
ख़ामोशियों से सुनना, पुकारों की बात है !