घनीभूत हो उठते अन्धकार में
दूर कहीं एक ज्योति:स्फुर्लिंग ने
तम-आवरण को चीर कर सर उठाया
और सहस्रों प्रकाश-वीथिकाएँ जन्म ले बैठीं !
एक अकेली आलोक-रश्मि
और अन्धकार से जूझने की इतनी जीजिविषा !
मानो एक आवाहन ..
है निखिल विश्व को उदबोधन
कर दो समस्त तम का शोधन...
बस,
अमावस की कालिमा को पल भर में विलोपित करती
कितनी उर्मिलायें तैल-पात्रों में झिलमिला उठीं ?
ज्ञात नहीं
जैसे अमावस की रात्रि में दसों दिशाओं में सूर्योदय हुआ हो !
यही तो दीपावली की गरिमा, उसका सौंदर्य है !!
आज कोई कोना ऐसा नहीं
जो प्रकाश-निधि-हीन हो
क्या मनु-पुत्र आज निशा होने ही न देगा?
'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
महाप्राण से ये निवेदन - आज अर्थ खो बैठा है
किधर चलें - नहीं सूझता,
सर्वत्र तो प्रकाश बिखरा है...
तो क्या करें - ठहर जाएँ?
कदापि नहीं.
निमिष भर के इस उत्सव को अंतिम सत्य तो नहीं कह सकते.
अभी चलना होगा....
प्रश्न- कहाँ?
उत्तर - मौन
दूर कहीं .......धूल सी उड़ी
नन्हे क़दमों की आहट...
कलुष-रहित ह्रदय में
उष्ण-स्नेह-स्पंदन लिए
वह नन्हा
जिधर जा रहा है - वहीँ चलें
अपने अन्तर्तम की सारी कालिमा, सारा द्वेष समेटें
और छोड़ आयें....
दूर..... क्षितिज के उस पार
ताकि वर्ष भर दीवाली हो !
कल्पना ही सही, कैसी है?
कल्पना ही सही, अच्छी है।
ReplyDeleteबहुत ही प्यारी कविता ....आशा से भरी , उजाले से सराबोर .
ReplyDeleteकलुष-रहित ह्रदय में
ReplyDeleteउष्ण-स्नेह-स्पंदन लिए
वह नन्हा
जिधर जा रहा है - वहीँ चलें.....Solution of all the problems of humanity!! If we could only have the heart of a child ; if we could only see through the eyes of a child.Beautiful thought.Thanks. Can't stop myself from reading it again and again.
बहुत खूब पुष्पेन्द्र जी...बच्चे सचमुच भगवान का रूप होते है
ReplyDeleteछोटी छोटी उंगलिया थामे
मै बढ़ रही उस अनंत प्रकाश की ओर
जहाँ उसका संसार झिलमिलाता है
मेरे घोर तम के बीच वो आशा के दीप जलाता है
धन्यवाद सिद्धेश्वर जी , मीता जी एवं रश्मि जी
ReplyDeletebeautiful lines from Rashmi ji!!
निमिष भर के इस उत्सव को अंतिम सत्य तो नहीं कह सकते
ReplyDelete....बहुत खूब !
दीपावली की शुभकामनाएं ||
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति की बहुत बहुत बधाई ||