Tuesday, 21 February 2012

ये पुरानी बातें हैं, जब मैं छोटा बच्चा था.


आसमां  के दामन पे
  मोतियों की शक्लों में
    जितने भी सितारे थे
      एक-एक कर मैंने 
        सबके-सब उतारे थे
और बंद हाथों को
  घर के एक कोने में
    (जो मुझे डराता था,
      रात के अंधेरों में)
        पहरेदार रक्खा था
          ये पुरानी बातें हैं
            जब मैं छोटा बच्चा था
घर का कोई भी कोना
  रात के अँधेरे में 
    अब डरा नहीं सकता
      क्या हुआ मुझे लेकिन
        अपने नन्हे बच्चे की
          मासूम एक ख़्वाहिश पे
            तारे ला नहीं सकता


अक्ल के अंधेरों ने
  मुझको ऐसे जकड़ा है
    चाह कर भी अब मेरा
      आसमान के तारों तक 
        हाथ जा नहीं सकता
तुम तो हो बड़े, पापा
  क्यूँ ये कर नहीं सकते ?
    गोल-गोल आँखें कर
      उसने मुझसे पूछा है
        साथ उम्र बढ़ने के
          होश के असर में यूँ
            आदमी क्यूँ अपने ही
              दायरों में जीता है -
                ये बता नहीं सकता
ये बता नहीं सकता



Sunday, 12 February 2012

यहाँ तुमको मिलूँ मैं या फ़क़त मेरे निशां बाक़ी !


अगर तय कर ही बैठे हो
  किसी अब और के दिल में 
    तुम्हें जा कर के रहना है,
नहीं अब एक भी लम्हा 
  मेरे दामन के साए में
    बिता सकते यहाँ जानां,

तो लो जाओ, अगर जा कर
  सुकूं लगता है पा लोगे
    मुहब्बत तर्क कर हम से !
मगर हर मोड़ पे पत्थर
  सड़क के, तुमसे पूछेंगे
    किसे तुम छोड़ आये हो ?

कभी रुमाल का कोना 
  जो है भीगा हुआ अब तक
    मेरे अश्कों के धारे से
      तुम्हारे हाथ आया तो 
        तुम्हें हंसने नहीं देगा !

किसी ढलती हुई शब में
  कोई बीता हुआ मंज़र
    कि जिसमें साथ होंगें हम
      तुम्हें रोने नहीं देगा !

सुबह तक जागते रहना
  कोई देखा हुआ सपना
    कि जिसमें बारहा तुमने
      मेरा चेहरा निहारा था 
        तुम्हें सोने नहीं देगा !

भले ही फाड़ दोगे तुम
  जला कर राख़ कर दोगे
    मगर वो हर्फ़ चीखेंगें 
      जो मैंने ख़त में लिक्खे थे !

शहर के कूचा-ओ-गलियाँ
  तुम्हें पहचान ही लेंगें 
    मेरे बारे में पूछेंगें 
      बड़ी उलझन में रख देंगें 
        बड़े सीधे सवालों से !

कहाँ जा पाओगे ऐसे ?
  किधर का रास्ता लोगे ?
    इधर ही लौट कर तुमको
      चले आना पड़ेगा पर
        यहाँ तुमको मिलूँ मैं या
          फ़क़त मेरे निशां बाक़ी ........

Wednesday, 8 February 2012

मिलने आये हैं गिले बनके बीते लम्हे


खुदको खोने के ज़ज़्बात नहीं बन पाए 
उसको पाने के हालात नहीं बन पाए 

मैंने तकलीफ़ बड़ी देर तक रोके रक्खी 
फिर भी रोने के हालात नहीं बन पाए 

ख़ुश्क आँखों के अश्कों में असर क्यूँ होता  
उसके दिल में वो बरसात नहीं बन पाए 

लफ्ज़ मांदा थे, रस्ते में कहीं जा बैठे 
उसको सुननी थी जो बात नहीं बन पाए 

किसी ख़ामोश सफ़र पे मिरे एहसास रवां
यूँ तो काफी थे, बारात नहीं बन पाए 

मिलने आये हैं गिले बनके बीते लम्हे
क्या कहूं, क्यूँ ये मुलाक़ात नहीं बन पाए