Thursday, 27 September 2012

वो क़दम जो मंजिल के मुन्तज़िर रहे बरसों

वो क़दम जो मंजिल  के मुन्तज़िर रहे बरसों
वो क़दम जो रस्तों  को नापते रहे बरसों

जिनके साथ राहों का ऐसा दोस्ताना था
देर तक गुजरना था, दूर तलक जाना था

रास्तों की छाती पर दस्तकों सी आवाजें
या कहो कि क़दमों की थके-पाँव परवाज़ें

एक दिन हमेशा ही मंजिलों तक जाती हैं
देर से सही मंजिल उनको मिल ही जाती हैं

हर क़दम सिकंदर है, हर क़दम की हस्ती है
जश्ने-ताजपोशी में देर हो तो सकती है

4 comments:

  1. हर क़दम विजेता है, हर क़दम की हस्ती है
    जश्ने-ताजपोशी में देर हो तो सकती है........

    very inspiring !!!!!!!!!!!!

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  2. Wah!!! Behtareen...Bahut khoob:-)

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  3. kya khoob likha hai Pushpendra ji ...Waqt achha zaroor ata hai, Par aksar, waqt par nahi ata...! :))

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