जब भी अलफ़ाज गूंगे होते हैं
और एहसास बहरे होते हैं
वक़्त होता है बस तमाशाई
रूह का पोर -पोर दुखता है
मुसलसल दर्द का मकां दिल है
रंज भी मुख़्तसर नहीं होता
ऐसे आलम में मैं कहाँ जाऊं
ऐसी हालत में क्या मुझे राहत
कोई रिश्ता सदा नहीं देता
कोई एहबाब सूझता ही नहीं
मुझको मंदिर नज़र नहीं आते
कोई मस्जिद नहीं बुलाती मुझे
ऐसी हालत में सर झुकाता हूँ
दुआ में हाथ मैं उठाता हूँ
जो भी चाहे तू फैसला कर दे
बस कि अब तेरे पास आता हूँ.....