Friday, 25 November 2011

जो भी चाहे तू फैसला कर दे



जब भी अलफ़ाज गूंगे होते हैं
और एहसास बहरे होते हैं
वक़्त होता है बस तमाशाई
रूह का पोर -पोर दुखता है
मुसलसल दर्द का मकां दिल है
रंज भी मुख़्तसर नहीं होता

ऐसे आलम में मैं कहाँ जाऊं
ऐसी हालत में क्या मुझे राहत
कोई रिश्ता सदा नहीं देता
कोई एहबाब सूझता ही नहीं
मुझको मंदिर नज़र नहीं आते
कोई मस्जिद नहीं बुलाती मुझे

ऐसी हालत में सर झुकाता हूँ
दुआ में हाथ मैं उठाता हूँ
जो भी चाहे तू फैसला कर दे
बस कि अब तेरे पास आता हूँ.....

7 comments:

  1. वक़्त होता है बस तमाशाई

    सटीक

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  2. ज़ख्मों पे मलहम सा रखती है ये कविता . धन्यवाद .

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  3. बहुत खूब पुष्पेन्द्र जी

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  4. आप सभी का धन्यवाद सराहने के लिए..

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  5. सुंदर बहुत खूबसूरत रचना लिखी है पुष्पेन्द्र जी,..
    मेरे पोस्ट में आपका स्वागत है,..

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  6. आदरणीय पुष्पेन्द्र वीर साहिल जी
    सस्नेहाभिवादन !

    बहुत ख़ूब लिखा है जी -
    कोई रिश्ता सदा नहीं देता
    कोई एहबाब सूझता ही नहीं
    मुझको मंदिर नज़र नहीं आते
    कोई मस्जिद नहीं बुलाती मुझे

    ऐसी हालत में सर झुकाता हूँ
    दुआ में हाथ मैं उठाता हूँ
    जो भी चाहे तू फैसला कर दे
    बस कि अब तेरे पास आता हूं.....

    मालिक का फ़ैसला तो मंजूर … लेकिन जाने की बात 50 साल के लिए मुल्तवी कर दीजिए भाईजी ! :))


    मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  7. अल्फाजों को गूंगे होने का अभिशाप नहीं मिलना चाहिए .....

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