जब भी अलफ़ाज गूंगे होते हैं
और एहसास बहरे होते हैं
वक़्त होता है बस तमाशाई
रूह का पोर -पोर दुखता है
मुसलसल दर्द का मकां दिल है
रंज भी मुख़्तसर नहीं होता
ऐसे आलम में मैं कहाँ जाऊं
ऐसी हालत में क्या मुझे राहत
कोई रिश्ता सदा नहीं देता
कोई एहबाब सूझता ही नहीं
मुझको मंदिर नज़र नहीं आते
कोई मस्जिद नहीं बुलाती मुझे
ऐसी हालत में सर झुकाता हूँ
दुआ में हाथ मैं उठाता हूँ
जो भी चाहे तू फैसला कर दे
बस कि अब तेरे पास आता हूँ.....
वक़्त होता है बस तमाशाई
ReplyDeleteसटीक
ज़ख्मों पे मलहम सा रखती है ये कविता . धन्यवाद .
ReplyDeleteबहुत खूब पुष्पेन्द्र जी
ReplyDeleteआप सभी का धन्यवाद सराहने के लिए..
ReplyDeleteसुंदर बहुत खूबसूरत रचना लिखी है पुष्पेन्द्र जी,..
ReplyDeleteमेरे पोस्ट में आपका स्वागत है,..
ReplyDelete♥
आदरणीय पुष्पेन्द्र वीर साहिल जी
सस्नेहाभिवादन !
बहुत ख़ूब लिखा है जी -
कोई रिश्ता सदा नहीं देता
कोई एहबाब सूझता ही नहीं
मुझको मंदिर नज़र नहीं आते
कोई मस्जिद नहीं बुलाती मुझे
ऐसी हालत में सर झुकाता हूँ
दुआ में हाथ मैं उठाता हूँ
जो भी चाहे तू फैसला कर दे
बस कि अब तेरे पास आता हूं.....
मालिक का फ़ैसला तो मंजूर … लेकिन जाने की बात 50 साल के लिए मुल्तवी कर दीजिए भाईजी ! :))
मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
अल्फाजों को गूंगे होने का अभिशाप नहीं मिलना चाहिए .....
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