Wednesday, 16 November 2011

उस पार, ऐसा हो

कभी खुद को मैं ढूंढूं इस तरफ इक बार, ऐसा हो
निगाहे-रूह तुझ पर हो टिकी उस पार, ऐसा हो

मैं राहे ज़िंदगी में जिनको पीछे छोड़ आया था
वो यादें सब की सब आयें कभी उस पार, ऐसा हो

मैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
कभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो

वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
तेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो

बहुत दिन से तुझे मैं दूर से ही चाहता हूँ, अब
लगूं खुल के गले तुझसे सरे-बाज़ार, ऐसा हो

किनारे पर खड़े हो के तमाशा देखने वाला
कभी आके मिले मुझसे यहाँ मंझधार, ऐसा हो

10 comments:

  1. वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
    तेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो....

    ati sundar!!!!!!

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  2. मैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
    कभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो ...

    लाजवाब शेर .. वैसे दिल की नदी में डूब कर कौन उबरना चाहता है ..
    कमाल की गज़ल है ..

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  3. आपकी रचना शुक्रवारीय चर्चा मंच पर है ||

    charchamanch.blogspot.com

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  4. मैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
    कभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो

    सुन्दर!

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  5. वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
    तेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो
    नए अंदाज़ अलफ़ाज़ एहसासात की ग़ज़ल .

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  6. बहुत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  7. इस ग़ज़ल में एक सूफियाना अंदाज़ महसूस होता है . खूबसूरत .

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  8. मैं राहे ज़िंदगी में जिनको पीछे छोड़ आया था
    वो यादें सब की सब आयें कभी उस पार, ऐसा हो
    ........... एक बंजारापन सा महसूस हुआ !

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