कभी खुद को मैं ढूंढूं इस तरफ इक बार, ऐसा हो
निगाहे-रूह तुझ पर हो टिकी उस पार, ऐसा हो
मैं राहे ज़िंदगी में जिनको पीछे छोड़ आया था
वो यादें सब की सब आयें कभी उस पार, ऐसा हो
मैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
कभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो
वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
तेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो
बहुत दिन से तुझे मैं दूर से ही चाहता हूँ, अब
लगूं खुल के गले तुझसे सरे-बाज़ार, ऐसा हो
किनारे पर खड़े हो के तमाशा देखने वाला
कभी आके मिले मुझसे यहाँ मंझधार, ऐसा हो
वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
ReplyDeleteतेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो....
ati sundar!!!!!!
मैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
ReplyDeleteकभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो ...
लाजवाब शेर .. वैसे दिल की नदी में डूब कर कौन उबरना चाहता है ..
कमाल की गज़ल है ..
आपकी रचना शुक्रवारीय चर्चा मंच पर है ||
ReplyDeletecharchamanch.blogspot.com
आपका ह्रदय से आभार रविकर जी..!
ReplyDeleteमैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
ReplyDeleteकभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो
सुन्दर!
वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
ReplyDeleteतेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो
नए अंदाज़ अलफ़ाज़ एहसासात की ग़ज़ल .
बहुत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
आप सभी का आभार..!
ReplyDeleteइस ग़ज़ल में एक सूफियाना अंदाज़ महसूस होता है . खूबसूरत .
ReplyDeleteमैं राहे ज़िंदगी में जिनको पीछे छोड़ आया था
ReplyDeleteवो यादें सब की सब आयें कभी उस पार, ऐसा हो
........... एक बंजारापन सा महसूस हुआ !