दरीचे दिल के खुल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
उसे हम दोस्त कह पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
नहीं अब याद कुछ, किस मोड़ से भटके थे हम रस्ता
लौट के घर को जा पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
बहुत अब दूर आ निकले हैं हम राहे-मुहब्बत में
अजनबी तुम से मिल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
वो कुछ बीते हुए लम्हे, वो कुछ बीती हुई घड़ियाँ
नज़र में आज लहरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
कि जिन लहरों से हम कश्ती, बचा लाये थे मुश्किल से
उसी दरिया में तैरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
बहुत ही दूर तक पसरी हुई है दिल में ख़ामोशी
उसे सब को सुना पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
जिन लहरों से हम कश्ती, बचा लाये थे मुश्किल से
ReplyDeleteउसी दरिया में तैरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता .
खूबसूरत ग़ज़ल .
Meeta I agree.... even the ending...
ReplyDeleteबहुत ही दूर तक पसरी हुई है दिल में ख़ामोशी
उसे सब को सुना पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
very beautifully expressed... :)
Keep writing..!!
bahut sundar aur sach bhi, likhte aap kamal ka hain !!!!!!!!!!!!
ReplyDeletewah!
ReplyDeleteआप सभी का सराहने के लिए धन्यवाद..!!
ReplyDeletebahut umda....
ReplyDeleteबहुत अब दूर आ निकले हैं हम राहे-मुहब्बत में
ReplyDeleteअजनबी तुम से मिल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
bahut achha
निहायत उम्दा गज़ल ..... हर अशआर खुद में मुक्कमल जहां समेटे हुए ......
ReplyDelete