Tuesday, 1 November 2011

दरीचे दिल के खुल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता

दरीचे दिल के खुल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
उसे हम दोस्त कह पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
नहीं अब याद कुछ, किस  मोड़ से भटके थे हम रस्ता  
लौट के घर को जा पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
बहुत अब दूर आ निकले हैं हम राहे-मुहब्बत में
अजनबी तुम से मिल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
वो कुछ बीते हुए लम्हे, वो कुछ बीती हुई घड़ियाँ
नज़र में आज  लहरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
कि जिन लहरों से हम कश्ती, बचा लाये थे मुश्किल से
उसी दरिया में तैरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
बहुत ही दूर तक पसरी हुई है दिल में ख़ामोशी
उसे सब को सुना पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 

8 comments:

  1. जिन लहरों से हम कश्ती, बचा लाये थे मुश्किल से
    उसी दरिया में तैरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता .
    खूबसूरत ग़ज़ल .

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  2. Meeta I agree.... even the ending...

    बहुत ही दूर तक पसरी हुई है दिल में ख़ामोशी
    उसे सब को सुना पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता

    very beautifully expressed... :)
    Keep writing..!!

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  3. bahut sundar aur sach bhi, likhte aap kamal ka hain !!!!!!!!!!!!

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  4. आप सभी का सराहने के लिए धन्यवाद..!!

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  5. बहुत अब दूर आ निकले हैं हम राहे-मुहब्बत में
    अजनबी तुम से मिल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
    bahut achha

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  6. निहायत उम्दा गज़ल ..... हर अशआर खुद में मुक्कमल जहां समेटे हुए ......

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