Tuesday, 3 January 2012

क़ासिद कल से घूम रहा मन के गलियारे में


जब भी मैंने चाहा सोचूँ अपने बारे में

तेरा अक्स नज़र आया मन के गलियारे में 

चटका देगा कोई पत्थर, बाहर आते ही 
सपनों को रहने देना मन के गलियारे में 

शायद तूने फिर से कोई ख़त भेजा होगा
क़ासिद कल से घूम रहा मन के गलियारे में

चलते-चलते थक जाऊं तो सो भी जाता हूँ
घर जैसी ही ख़ामोशी मन के गलियारे में

एक ही सागर, एक ही मीना, एक ही साक़ी है 
एक ही महफ़िल सजती है मन के गलियारे में 

किसने शोर शहर में डाला, 'साहिल' है तनहा
यादों का हज्जूम चला मन के गलियारे में 

8 comments:

  1. कभी-कभी कोई शेर पूरी गजल की रूह बन जाता है ,पर इस बार तो पूरी गजल ही इकतार हो रूह बन गयी .....

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  2. शब्द शब्द बेजोड़ रचना...बधाई
    नीरज

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  3. बधाई इस उत्तम रचना के लिए।

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  4. चलते-चलते थक जाऊं तो सो भी जाता हूँ
    घर जैसी ही ख़ामोशी मन के गलियारे में ...

    बहुत कमाल का शेर है ... मज़ा आ गया ...
    आपको नया साल मुबारक हो ...

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  5. Nivedita ji, bahut bahut dhanyavad. Neeraj ji evam manoj ji, sarahne ke liye aabhar !

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  6. ग़ज़ल के भाव बिल्कुल ताजे धुले से हैं। भोर के गुलाब की खुशबू भी है इनमें। आपको पढ़ना बेहद खूबसूरत है।

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