Thursday, 9 June 2011

रुद्रपुर 14 साल बाद 2010 में




वो प्लाट कहाँ है जिसमें हमने
ईंट पे गिट्टी रख के
पिट्ठू गरम किया था...
मेरे दोस्त, अभी भी याद है मुझको
बहुत तेज लगती थी
वो सतरबड़ी लाल गेंद

वो मकानों के बीच से हो कर
गुजरते टेढ़े-मेढ़े रास्ते,
सीधे जाते थे स्कूल तक
अब शहर में सीधी-सीधी गलियां हैं
और सब कुछ हो गया है दूर-दूर

अब कोई 'लाले की औलाद'
जून में साढ़े तीन बजे
घर के बाहर चुपके से
आवाज नहीं लगाती
"मैं बल्ला ले आया, गेंद ले आ"

अब किसी माँ को फ़िक्र नहीं
कहीं मेरा लाल धूप में
निकल तो नहीं भागेगा
खेलने बाहर, क्यूंकि
अब जगह ही नहीं है

कभी लड़के जिन गलियों में
गिल्ली-डंडा खेलते थे
और लडकियां वो स्टापू
या कभी मिलके छुपन-छुपाई
वहां बाज़ार फ़ैल गया है
बचपन छुप गया है

गाँधी पार्क में एक साथ
दस टीमें खेलती थी क्रिकेट
अपनी-अपनी पिच पे
अब एक उदास फव्वारा
कुछ बीयर की बोतलें
और बेतरतीब उगी हुई घास
ना बैटिंग, न बौलिंग, न फील्डिंग

अब झा इंटर कॉलेज
शहर से बाहर नहीं लगता
जनता इंटर कॉलेज
शहर के अन्दर खो गया है
भगत सिंह चौक
भीड़ से घबरा के
कहीं दुबक गया है

अब कोई किसी से रुक कर
बात नहीं करता
सब भाग रहे हैं

अब कोई अपने घर की
दीवार पे बच्चों को
चॉक के विकेट नहीं बनाने देता

अब कारें हैं उन गलियों में
जिनमें साईकिल चलती थी

पहले पुलिस होती थी
सिर्फ पुलिस चौकी में
अब हर जगह मौजूद है

मैं पूरे बाज़ार से गुजर आया
किसी ने नहीं पहचाना मुझे
किसी ने नहीं टोका
गलत ही सही, नाम से नहीं पुकारा -
और मैंने यहाँ इक्कीस साल गुजारे थे!

ये शहर बड़ा हो गया है
लोग छोटे हो गए हैं.....



(09.06.2011)

2 comments:

  1. वो प्लाट कहाँ है जिसमें हमने
    ईंट पे गिट्टी रख के
    पिट्ठू गरम किया था...
    मेरे दोस्त, अभी भी याद है मुझको
    बहुत तेज लगती थी
    वो सतरबड़ी लाल गेंद
    वाह..क्या कविता पढने को मिली है यहाँ आकर!

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