Sunday, 4 December 2011

कारोबार


ग़म को सुख के रंग में ढाला, सुख में रंज शुमार किया
सदियों से इंसान ने यूँ ही, अपना कारोबार किया
जी चाहा तो सहरा में भी बस्ती एक बसा डाली
जी चाहा तो बसे-बसाये गुलशन को बिस्मार किया
कभी मशालें बनकर इसने घर औरों के फूंक दिए
किसी रात फिर परवाने की शम्मा का क़िरदार किया
गाँव-गाँव नफ़रत की बातें, शहर-शहर दुश्मन चेहरे 
इक ने इक फ़रहाद ने फिर भी, इक शीरीं से प्यार किया
ग़म को सुख के रंग में ढाला, सुख में रंज शुमार किया
सदियों से इंसान ने यूँही, अपना कारोबार किया

8 comments:

  1. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति । मेर नए पोस्ट पर आकर मेरा मनोबल बढ़एं । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  2. ग़म को सुख के रंग में ढाला, सुख में रंज शुमार किया
    सदियों से इंसान ने यूँही, अपना कारोबार किया

    सटीक और भावपूर्ण रचना

    ReplyDelete
  3. सुन्दर प्रस्तुति ||

    बधाई ||

    http://terahsatrah.blogspot.com

    ReplyDelete
  4. धन्यवाद संगीता जी एवं रविकर जी ..!

    ReplyDelete
  5. वाह!
    बेहतरीन, लाजवाब!!

    ReplyDelete
  6. इक ने इक फ़रहाद ने फिर भी, इक शीरीं से प्यार किया
    ग़म को सुख के रंग में ढाला, सुख में रंज शुमार किया
    .............बहुत खूब !

    ReplyDelete
  7. perfect blend of philosophy and reality....beautiful!!!!!!!

    ReplyDelete