Saturday 11 June 2011

तुम्हें जो जानती थीं पर वो उंगलियाँ न रहीं

मेरे चमन को फूंकती वो बिजलियाँ न रहीं
मेरे दयार-ए-रोशन की दास्ताँ न रहीं 

दिखा करती थीं अक्सर अब मगर यहाँ न रहीं
बड़ी हसीन सतरंगीं वो तितलियाँ न रहीं

दर्द पिघलने तलक ये चिराग़ जलते रहे
और उसके बाद ये आँखें धुंआ-धुंआ न रहीं

बस कि इक बार चश्मे-नम ने पलट के  देखा
जो भी उससे शिकायतें थीं, दरमियाँ न रहीं

आज कुछ दोस्तों के साथ बोल-हंस आया 
बहुत दिनों से थी दिल में, उदासियाँ न रहीं

फिर से एक बार तुम्हें आज छूना चाहता हूँ 
तुम्हें जो जानती थीं पर वो उंगलियाँ न रहीं

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चश्मे-नम - भीगी आँख
(11.06.2011)

3 comments:

  1. दर्द पिघलने तलक ये चिराग़ जलते रहे
    और उसके बाद ये आँखें धुंआ-धुंआ न रहीं

    बस कि इक बार चश्मे-नम ने पलट के देखा
    जो भी उससे शिकायतें थीं, दरमियाँ न रहीं

    फिर से एक बार तुम्हें आज छूना चाहता हूँ
    तुम्हें जो जानती थीं पर वो उंगलियाँ न रहीं

    bahut khuubsurat

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  2. अद्भुत अभिव्यक्ति है| इतनी खूबसूरत रचना की लिए धन्यवाद|

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