Thursday 30 June 2011

कली


सुना तुमने?

कि सांस लेने को जूझती-हांफती कली
हार कर चुक गयी
लेकिन मैं नहीं मानता - नहीं मानूँगा
क्योंकि मैंने कली को हर वक़्त, हर जगह देखा है

जेठ की दुपहरी में
चूल्हे के पास
लकड़ियों से उठते
कडवे धुएं से अंधी हो उठती आँखों में
राख की प्रतिमा सा उभरते देखा है
कली - कहीं भी हो सकती है

तृण-संकल्नार्थ,
प्रातःरश्मि की वंशी पर झूमती
एक के पीछे एक - बनाती निरीह कतार
उन नव-यौवना पर्वत बालाओं को
अनछुआ-पारद-सौंदर्य बिखेरते देखा है
कली - यहाँ भी तो हो सकती है

पार्श्व से उठती ढोलक की थाप पर
उन कदमों की गति-यति में -
उन बाद के पहरों में,
कली - यहाँ भी तो हो सकती है

मूक प्रणय निवेदन करते
सलज्ज - सजल नयनों के उठने - गिरने में
जबकि होंठ चुप हैं -
कि उन पर आ ठहरी है लज्जा -
प्रियतम-सामीप्य से,
प्रेमानल-तप्त धड़कनों में सुना हैं मैंने
कली - कहीं भी हो सकती है

कर्णभेदी शब्द करती दामिनी हो - बाहर
टपकते छप्पर में जमीन पर बिछी - अवश
चिन्हुँकती-सुबकती
कली - यहाँ भी हो सकती है

बेटी के विवाह की चिंता में
पिता के माथे पर आ उतरी विषाद- ज्यामिति में
भाई की राह तकती किन्हीं राखी थामे कलाइयों में

तुम देखो तो सही - आस-पास मेरे तुम्हारे
कोई भी हो सकती है, कहीं भी हो सकती है
बहुत आसान है ढूँढना उसको

क्योंकि
कली एक -
                 घुटन है
                 रुदन है
                 पीड़ा है
                 विवशता है
                 चीख है
                 आंसूं है
                 हिचकी है
                 .............................. और कभी-कभी इस सबसे बग़ावत है.


(The poem was written around 1991-92 after reading Krishnkali - a novel by Shivani)

4 comments:

  1. kitni purani yaad judi hai ..Shivani se

    Krishnakali se... tab dhuul nahi dekhi thi,gubaar

    nahi dekhe the...shivani ki nayikaon ki tarah

    udtaa rehta thaa mun....AAJ yaad ho AAYI sab baat....

    sundar dhang yaad karne kaa....yaad dilane kaa

    ReplyDelete
  2. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

    ReplyDelete