Friday, 1 July 2011

शमीम अपने भी नाम की आयी.....

खड़ा हुआ है वो उस किनारे नदिया के
और इस किनारे मुझसे बात करता है
अपनी - अपनी हैं सालिम  कश्तियाँ लिए हर एक 
सुकूं  का आलम है 

जाने क्यूँ इक सवाल पूछ रहा है मुझसे
कि तुमने भी कभी जुर्रत हसीन की थी कभी -
और दरिया में पाँव डाले थे?

शायद भूल गया है कि मैं भी था एक दिन
उसी किनारे पे ठहरा हुआ, बहुत दिन तक  


आज मैं ख़ुद को इस किनारे अगर पाता हूँ
डूबा एक बार तो मैं भी जरूर होउंगा !
पाँव का भीगना क्या होता है?

लहर वो तेज थी, हल्की थी या नहीं थी कोई 
बीच दरिया की लहरों का नाम क्या लेना?
मायने सिर्फ किनारों में ढूंढें जाते हैं 

कोई पिछली नमी बाकी कहाँ तलक रहती  
पैरहन सूख चुका है कब का, 
नयी हवाओं के झोंके कभी रुके हैं भला ?


शमीम अपने भी नाम की आयी
और ठहरी है मेरे पास आके

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सालिम - सुरक्षित 
पैराहन - वस्त्र 
शमीम - बयार 

1 comment:

  1. शमीम अपने भी नाम की आयी
    और ठहरी है मेरे पास आके....Sweet,I like the way you wrote it, thanks !!!!!!

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