मेरी तकलीफ बसती है मेरी आँखों में
और दिखती है
जब बिजलियाँ कौंध जाएँ - बाहर
मेरी आवाज यूँ तो रुंधी सी रहती है
मगर देती है जुबान तूफां को
कभी कभी
दिखती है चुभन
भरोसे की दरकती दीवारों में
आंसू हैं, ढलक उठते हैं
इस नज़्म के तहखाने में उम्मीदों का एक आसमान
दफ़न है कबसे
जमीन उधडी पडी है
जज्बातों की तरह
अभी भी इंतज़ार है तुम्हें किस पल का?
कुछ हो भी नहीं कि अब मेरे ..?
(12.07.2011)
प्रभावी रचना.......
ReplyDeletevo sawal jo sawal hi rah jate hain, kavitao.n mai bahut sunder lagte hain.....
ReplyDeleteprabhavshali rachna....
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