Sunday, 17 July 2011

ये आवारा सी नज़्में

बिना वजह
बे-वक़्त
गैर-इरादतन
बूँद-बूँद अंधेरों में
बिना बुलाये
कुछ नज़्में इस तरह उतर आती हैं ....

कुछ बीते लम्हे
कुछ पुरानी आवाजें
कोई पिछला दर्द
गुज़री हुई तक़लीफ़
वो नश्तर 
सब नजर आते हैं उनमें 

भटक रही हैं भीतर बहुत दिनों से मगर 
अब इनकी किसी को ज़रूरत नहीं है शायद 
ये आवारा सी नज़्में ......
इन्हें कहाँ रक्खूं?
क्या करूं इनका ?

4 comments:

  1. दिल के इस गुबार को
    लफ़्ज़ों में उतर दो
    ये अगर बेहिसाब बढ जाये
    तो नासूर बन जायेगा

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  2. behtareen prastuti.....aur umda rachna

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