Sunday 18 December 2011

इस उम्रे-बेक़रार को तनहा ही छोड़ दो


दिल में उमड़ रहा है, किसी नाम का धुआं  
सुलगी तमाम रात, ऐसी शाम का धुआं .

मेरी तलाश आके यहाँ ख़त्म हो गयी
उठने दो ग़र उठे जो इस मुक़ाम का धुंआ .

इस उम्रे-बेक़रार को तनहा ही छोड़ दो
इसका नसीब ख़्वाबे-बेलगाम का धुआं 


जो बन के अश्क़ दर्द को रस्ता ना दे सके 
बेकार की ख़लिश है, ये किस काम का धुआं .


दंगों की आग, शहर की तहजीब खा गयी
है चार सूं दुआओं का, सलाम का धुंआ .

हिन्दू का घर था याकि मुसलमां का घर जला 
देता नहीं पता, ये घर की बाम का धुआं .

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बाम  - छत 

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