Tuesday, 31 May 2011

उसका ख़त पढ़ के मुझे इतना ऐतबार आया


वो मुझे भूल चुका, भूल चुका, भूल चुका
उसका ख़त पढ़ के मुझे इतना ऐतबार आया

ये और बात है हर हर्फ़ के कलेजे में
मेरा ही नाम नज़र मुझको बार-बार आया

ये कैसे मान लूं वो चाहता नहीं मुझको
क्या हुआ जो ख़त उसका कभी-कभार आया

सुना है उसको संग-सार किया जायेगा
मैं ख़ुद को उसके रकीबों में कर शुमार आया 

(31.05.11)
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संग-सार - पत्थर से मारना

वो तो चुप था कि रुस्वाइयाँ ना हों मेरी


चंद शेर 

वो तो चुप था कि रुस्वाइयाँ  ना हों  मेरी
मैं ये समझा कि नहीं कोई शिकायत बाकी 

करके बैठे हैं कब से वो मुहब्बत चुकता
देखना ये है कि शायद हो अदावत बाकी 
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बन के फिर दोस्त कोई आया है धोखा देने
मगर उसे भी कलेजे से लगाना होगा

मैं जानता हूँ इस बार भी देगा वो फ़रेब
मगर हसीन है धोखा तो फिर खाना होगा
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मैं उस से हाथ मिला लूंगा कोई बात नहीं
उस से कह दो ना इसे मेरी लगावट समझे

कोई दम बैठ के जो सांस भरी है मैंने
ना आहे-इश्क़, इसे मेरी थकावट समझे
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टूट कर भी वो झूठ नहीं बोलेगा
उसकी फ़ितरत है आईने की तरह

(31.05.11)

Friday, 27 May 2011

दिल में लेकिन ख़ला नहीं रखना


मुझको आदत है दिल दुखाने की
दोस्त   मेरे,  गिला   नहीं  रखना

मैं   भले   ही   करीब   ना   आऊँ 
फिर भी तुम फ़ासला नहीं रखना

वक़्त  है तंग  तुम तूफानों के 
पास  ये काफ़िला नहीं रखना

ख़ुशी-औ-ग़म की गिनतियों में कभी
क्या  मिला,  ना  मिला, नहीं  रखना 

दोस्त  रखना  क़रीब  या दुश्मन
पास कोई  दिलजला नहीं रखना

चाहे ख़ुशियाँ हों या के ग़म रखना
दिल में लेकिन  ख़ला नहीं रखना

Thursday, 26 May 2011

मुझ से गर यूँ नजर मिलाओगे

सुना है तुम सफ़र पे निकले हो  
मुझको दरवाजे ताकने होंगे  


मुझ से गर यूँ नजर मिलाओगे 
रूह के दाग़ ढांपने  होंगे 


ख़्वाब आँखों में मेरी मत रक्खो  
मुझको ता-उम्र पालने होंगे


ख़ुद से पहले ही कुछ शिकायत है  
ये गिले भी सँभालने होंगे


हंस के तुम तो चले ही जाओगे 
मुझको आँसू बुहारने होंगें


रंज की रात कट चुकी कब की  
दुःख के दिन अब गुजारने होंगे


अगरचे हम ख़ुशी न बाँट सके 
ग़म तो आपस में बांटने होंगे


ज़िक्र आएगा ऐसे लमहों का 
जो हमें हंस के टालने होंगे


मैं बुरा हूँ मगर मेरे कुछ तो 
तुमको एहसान मानने होंगे


जिनको बहना था कश्तियों में हैं
हमको साहिल तलाशने होंगे


(26.05.11)







तमन्ना लौट कर जाने की



लौट  आया  हूँ  ख़ुदा  तेरे  जहाँ  से  मैं 
तमन्ना  लौट  कर  जाने  की  मुझको एक  नहीं
लाजमी   है  के  अचरज  तुझे  हुआ  होगा
मगर  हैरान  इस  हद  होके  मुझको देख  नहीं


ये  सच  है कि  देखने  में  है  हसीं  बहुत
जहाँ  जो  तूने अता  है  किया  हमारी  नजर
हर  एक  ज़र्रा  बेशक  है  दिलकशी  में  गज़ब
हर  आलम  में नजर आता  है ख़ुदाई असर

हंसीं  वादियाँ  जिनमें  घटाओं  के  मंजर
जिन्हें  निहार  के  तबीयत  को  नशा  आ  जाये
और बारिश में मिट्टी की ले महक सौंधी
बहे  बयार  तो  ज़न्नत का  मजा  आ  जाये

मगर  ये  क्या  किया,  तूने  बना  दिया  इन्सां
अपने  हाथों  से  क्यूँ  बहार  में खिज़ां भेजी
हरेक  शै  उदास  हो  गयी  है  जब  से
स्याह  शख्शियत  इन्सां  की  यहाँ  भेजी

स्याह करतूतों का आलम ये है के देते हैं
मात  शैतान  को  मेरे  ख़ुदा, तेरे  बन्दे
और तो और, अब इक साथ रह नहीं सकते
तेरी  दुनिया  में  मेरे  ख़ुदा, तेरे  बन्दे

जो  जमीन  तूने हसरतों  से  दी  उनको
उन्होंने  बाँट  कर  रख  दी  वहां, वही  धरती
बांटते-बांटते  इस  हद  हुआ  है  बंटवारा
बंटी  है  रोशनी, जुदा -जुदा  हवा  बहती

ख़ुद भी  बँट गए  मज़हब  के नाम पर  सारे
ये  हिन्दू, ये  मुसलमान, ये ईसाई है
राम -रहीम  में , ईसा में   और  मूसा  में
गज़ब  हुआ ख़ुदा, बँटी  तेरी  ख़ुदाई  है

हकीक़त ये  कि  बच्चे  भी  दो  तरह  के  हैं
एक  तो  वे  जिन्हें  नसीब  हैं  आराम  सभी
सुबह  हंसती  हुई आती  है जिनकी  दुनिया  में
उदास  उनके  लिए  होती  नहीं  है शाम कभी

जिसकी किस्मत  में लिखा  ही  नहीं जवां  होना
एक  बचपन  वहां  है  और,  गंदी गलियों में
आज, बस आज, अगर पेट  उसका  भर  जाये
उसको मिल जाएगी ज़न्नत, गलीज गलियों में

वो बचपन जवान होगा जब बुढ़ापे की
झुर्रियों में सन जायेगा उसका चेहरा
भटकता हुआ वीरानियों में, ढोए हुए
बारे-जीस्त, जब थक जायेगा उसका चेहरा

आज इन्सान में इंसानियत नहीं बाकी
शख्श हर एक, एक-दूसरे का दुश्मन है
हर तरफ खून के दरिये, क़त्ल की साजिश
दिलों में आ गयी न जाने कैसी भटकन है

रगें इन्सान की अब खून नहीं ले जाती
उनमें भर गया है वहशतों का लावा
चैन दो पल नहीं, क़रार नहीं मुद्दत से
दिमागों पर हुआ है दहशतों का दावा

आज इन्सां नहीं पीता तेरा दिया पानी
है पसंद उसको पीना खून इन्सां का
लाश देख, वो रोता नहीं है, हँसता है
इस हद पे आ गया जूनून इन्सां का

ऐसी बस्ती को बसाने से तो बेहतर होता
जहां में हर तरफ सुनसान वीराने होते
क़त्ल हो गए इन्सान ही के हाथों जो
बदन ना उनके हमें रोज़ जलाने होते

तमन्ना लौट कर जाने की मुझको एक नहीं…...


Wednesday, 25 May 2011

पूछिए ना आप क्या हुआ



 उजड़े आशियाँ पे रोयेंगे
 खूने-तमन्ना पे रोयेंगे 


 जख्म ऐसे दिल को मिल गए
 आज मुंह छुपा के रोयेंगे


 आंसुओं की बात आ गयी
 आज मुस्कुरा के रोयेंगे


 छोडिये जफा की बात को
 उनकी हम वफ़ा पे रोयेंगे


 दिल ने आज फैसला किया 
 उनको भी रुला के रोयेंगे


 इस जमीं का जिक्र क्या करें
 हम तो आसमां पे रोयेंगे


 पूछिए ना आप क्या हुआ
 आप दास्तां पे रोयेंगे  

Monday, 23 May 2011

विदा करती हथेली धीरे धीरे थक गयी होगी



सांवली धूप काले बादलों से खेलती होगी
कहानी बन रही होगी
किसी की आँख छिप कर गेसुओं में देखती होगी
कहानी बन रही होगी
झील में कोई कश्ती दिल की मानिंद डोलती होगी
कहानी बन रही होगी
भीगी आँख में शबनम पलक पे झूलती होगी
कहानी बन रही होगी
किसी की आस ढलकर उन खतों में बोलती होगी
कहानी बन रही होगी 
कोई उम्मीद मिलने दूर तक अक्सर गयी होगी
कहानी बन रही होगी
विदा करती हथेली धीरे धीरे थक गयी होगी
कहानी ..........



(23.05.11)

Sunday, 22 May 2011

होली


दोनों हाथों से चेहरा ढके हुए अपना
लाज से लाल कपोलों को थी छुपाये हुए
रही थी भीग वो फागुन की रंग-वर्षा में
भीगे आँचल में थी कमनीयता समाये हुए

थोड़ी शरमाई हुई, थोड़ी सी घबराई हुई
घटा गुलाल की उमड़ी तो वो सहमी-सिहरी
ऐसी होली भी इक बार मैंने देखी थी
रगों के गर्म लहू सी थी लालिमा बिखरी

वक़्त को बीतने में वक़्त कहाँ लगता है
हर सुबह आफ़ताब लाल मचल जाता है
दुनिया दिन भर में थोड़ी सी बदल जाती है
शाम ढलती है तो सूरज भी पिघल जाता है

लेकिन इस बार फिजां ज्यादा ही तब्दील हुई
और माहौल भी इस बार कुछ अजीब सा है
जिसको देखो उदासियों की तरह गुमसुम है
रूह मुर्दे की तरह, तन किसी सलीब सा है

जिस गली से गुजरता हूँ, ठहर जाता हूँ
खून के दाग देखता हूँ, ठहर जाता हूँ
जिधर भी देखिये वहशतों का आलम है
ये सब देख सिहरता हूँ, ठहर जाता हूँ

और इसी वहशतों के आलम में
चाँद शैतानों की हैवानियत मचल उट्ठी
उस कमसिन उमर को इस क़दर निचोड़ा है
देख इंसानियत की आत्मा दहल उट्ठी

अब भी खोये हैं राग-रंग में वहशी सारे
साल भर होली उनकी, उम्र भर दीवाली है
नसों में रक्त अब भी खौलता है लेकिन
नहीं इस गर्मी की तासीर पहले वाली है

फिर से लौट कर आया तो है फागुन लेकिन
कैसे बतलाओ इस माहौल में होली खेलें
उस मासूम की हालत पे नजर जाती है
तो दिल करता है होली में दीवाली खेलें

घर के आँगन में नीम तले पागल सी
देखो बैठी है सर अपना वो झुकाए हुए
दोनों हाथों से चेहरा ढके हुए अपना
लाज से लाल कपोलों को है छुपाये हुए

Saturday, 21 May 2011

न जाने क्यूँ

 तन्हाई ही में काटी मैंने राहे-ज़िंदगी 
 और जनाज़े  में हजारों साथ हो गए

 जिनके हरेक ग़म में मेरी आँख हुई नम
 मेरे ग़म उनके लिए मजाक  हो गए

 उम्र भर जो काम किये नेकी के लिए
 बन के वही दामन पे मेरे दाग़ हो गए

 हर सुबह सोचा कि आज है ख़ुशी का दिन
 शाम तक न जाने क्यूँ उदास हो गए

 इक बार कर लिए इरादे जब बुलंद
 ख़ुद-ब-ख़ुद साहिल हमारे पास हो गए

(11.05.89)

Thursday, 19 May 2011

अभी कुछ रोज़ कश्ती


यहाँ हरियाली बहुत है तो जंगल काट डालो फिर
मिटा के कोह सारा बियाबानों का मज़ा लो फिर 

अभी बहती हुई नदियाँ नहीं अच्छी तुम्हें लगतीं ?
बाँध कर बाँध पानी ही न क्यों इनका सुखा लो फिर

सुना है, आ चुके हो तंग तुम सैलानियों से अब  !
न कुछ दिन में कोई आएगा जितना भी बुला लो फिर

न  होगी  झील  ना  कोई  कतारें  देवदारों  की
अभी कुछ रोज़ कश्ती तुम जो चाहो तो चला लो फिर

कोह - पहाड़ 

(19.05.11)

दीवारें

हम आंसूं भी नहीं हैं..

अगर होते  तो हमें सहेजने कोई तो दामन नज़र आता !

हम ओस भी नहीं बन पाए
कि बिखर जाते स्नेह की दूब पर 
और निशा शांत गुजर जाती...

हम तो अभिमन्यु की तरह,
जन्म से पहले ही मृत्यु के लिए अभिशप्त 
अनकही कथाओं के पात्र ,
अस्तित्व-विहीनता में जीवन की तलाश में हैं

लेकिन मार्ग कहाँ है इस चक्र-व्यूह में?

जहाँ उन शब्दों की दीवारें हैं, जो कभी बोले नहीं गए...

(15.09.92)

मैं एक मुसाफिर हूँ

 हर  शख्श  बेगाना  है,  हर दिल  वीराना है
 तुम   मानो   ना  मानो,  बेदर्द   जमाना  है

 हर सुबह निकलना है होठों पे हंसी  लेकर
 हर शाम ढले घर पर ग़म ले कर आना है

 इस  दुनिया  से  अक्सर  कांटे  ही पाये हैं
 उम्मीद  में  फूलों  की  दामन  फैलाना है

 है  दर्द  नया  जिसमें  पर  बोल  पुराने  हैं
 वो गीत मुझे तुमको इक बार सुनाना है 

 मैं एक मुसाफिर हूँ तुम रोको मत मुझको
 इस दर से गुजर के फिर नहीं लौट के आना है

(03.06.90)

Monday, 16 May 2011

A translation of "FORGOTTEN PILLARS" by Shantanu Raychoudhuri..



मूक दर्शक
कर चुके समर्पण
शाश्वत समयहीनता के भार तले ...
सजे खड़े हैं बिखरी लताओं से

मकड़ियों ने बुने हैं उलझे हुए आकार - सदियों की धूल पर

धकेले जा चुके अस्तित्वविहीनता में -
सारे धार्मिक उन्माद से परे
शायद दे सकें शांति किसी भूले-भटके को

क्योंकि धब्बे नहीं हैं उन पर - भक्तों के खून के

(Shantanu Raychoudhuri lives in Delhi. He is a great human being, personal friend and poet par excellence)
(20.07.2000)

Sunday, 15 May 2011

सुनयने

 बोध है मुझको तुम्हारे प्रेम का, फिर भी सुनयने
वेदना-पथ के पथिक का साथ कितना दे सकोगी?

वेदना के गीत गाकर
अश्रु-जल सरिता बहा कर
चाहता हूँ जग-विकल की पीर भर लूं इस ह्रदय में
धूल में जाऊं बिखर
और भी जाऊं निखर
यूँ किसी नन्हे का भोलापन समा लूं इस हृदय में
जिसके बचपन को कहीं
शहरों में ले जाकर श्रमिक
बंधुआ बनाया जा रहा हो
और यही बंधन नहीं है जो हमें घेरे हुए है
बंधनों का चक्रव्यूह है, किस तरह तुम लड़ सकोगी?

हर अधर पर आज पीड़ा
हर नयन में आज आंसू
हर ह्रदय में आज सिमटी हैं हजारों चिंतनाएँ
कुछ भी कह सकते नहीं
चुप भी रह सकते नहीं
इस तरह बांधे हुए मनु-वंशजों को वर्जनाएं
वर्जना के कंटकों को
साफ़ करते हाथ मेरे
रक्त से भीगे हुए हैं
रक्त से भीगे हुए कर-द्वय तो जाने कब रुकेंगे
इन के रुकने की प्रतीक्षा, तुम कहो, क्या कर सकोगी?

दृग-द्रवित से वारि-वृष्टि
आंचलों पर गिद्ध-दृष्टि
आज ममता लाज ढकने को अँधेरे ढूँढती है
साथ वाले घर की सीता
और परले घर की सलमा
राखियाँ थामे किसी भाई की बाहें ढूँढती है
वासनाओं के समय में
राखियों की बात करता
मैं बहुत पिछड़ा हुआ हूँ
और इस पिछड़े हुए के साथ चल पाओगी कैसे
मूल्य हैं बीते समय के, क्या इन्हें अपना सकोगी?

प्रेम की वेला नहीं है
ये तो प्रश्नों की घड़ी है
और इन्हीं प्रश्नों के उत्तर ढूँढने हैं मुझको पहले
उस समय तक रूक सको तो
गर प्रतीक्षा कर सको तो
मेरी आँखों में भी बसते हैं कई सपने रुपहले
वास्तविकता के धरातल
पर उतर के देखने से
है यदि इंकार तुमको
तो मुझको इनकार है इस प्रेम की संकल्पना से
गा नहीं सकता प्रणय का गीत मुझको भूल जाओ
कह नहीं सकता तुम्हें मन-मीत मुझको भूल जाओ


तुम नहीं अगर मिलते

 राह  में  तुम  नहीं  अगर मिलते 
 इतना मुश्किल सफ़र नहीं होता 

 यहाँ   इंसान   कुछ    हैं   ऐसे   भी 
 जिनमें दिल-ओ-ज़िगर नहीं होता 

 पास  मंज़िल  के  पहुँच  जाने पर 
 फ़ासलों  का  जिकर  नहीं    होता 

 वीरानियों   की   महफ़िल   में 
 तनहा  कोई  बशर नहीं  होता


(16.10.1991)

Wednesday, 11 May 2011

नहीं तो अब तलक दिल में समंदर बन गया होता


 हंसी बन के जो उतरा है फ़साना आप के लब पे
 ये मेरी आँख से ढलता तो आंसू बन गया होता

 चुभेंगें इस  क़दर  ये  गुल  मुझे  मालूम  जो होता
 मैं गुलशन में तो आया था ही कांटें चुन गया होता

 कोई  उम्मीद  जो  होती   के  मुझ  पे  ऐसी  गुजरेगी
 जिगर का मोम सब पिघला के पत्थर बन गया होता

 चलो अच्छा हुआ के रो लिया करता था मैं अक्सर
 नहीं तो अब तलक दिल में समंदर बन गया होता

(08.05.1992)

Saturday, 7 May 2011

मेहमान

 कोना-कोना   दिल   का   है  बरसों   से   सूना-सूना  सा
 ग़म ही आयें, आयें मगर, कुछ नाम तो हो मेहमानों का

 अपनों के चमन से जब गुजरे काँटों ने दामन थाम लिया
 फूल  जहाँ  पर  मिले  हमें,  वो  बाग़  तो  था  बेगानों  का

 तूने  मुहब्बत  ठुकराई,  कोई  बात  नहीं, ना  कोई  गिला
 पर  ये  तो  बता, अब  क्या होगा  तेरे  मेरे  अफसानों का

 डूब   ना   जाए   कश्ती,   साहिल   दूर   है,  ऊंचीं  हैं लहरें
 अब  तो   भरोसा  मांझी  को  भी,  है  केवल  तूफानों  का

Tuesday, 3 May 2011

माँ मेरी, दे जनम मुझे



मैं तेरी गोद में आऊंगी तो महकेगी ज़मीं  
गुंचे हर सिम्त खिले तुझको नज़र आयेंगे
तेरी आँखें न मुझे देखती भर पाएंगी
तेरी रूह में तारे से बिखर जायेंगे

माँ मेरी, दे जनम मुझे कि इसी दुनिया में
कदम-कदम पे मेरी बहुत जरूरत है
क्यूँ इंतज़ार करूं, माँ मेरी, कि ये दुनिया
मेरे ही दम से कोई शहर ख़ूबसूरत है

जो मैं नहीं तो कलाई वो मेरे भाई की
करेगी इंतज़ार उम्र भर, मेरा हरदिन
कौन बांधेगा भला उसके हाथ पे राखी
पिरोके पीले-पीले धागों में, न हो जो बहिन 


मर्द ये माना कि ख़ुद को ख़ुदा समझता है
उसे इस दुनिया में पर कौन ले के आएगा
माँ की ममता की छाँव कैसी भला होती है
कैसे समझेगा, भला कैसे जान  पायेगा

किसके हाथों  सजेंगे दीये फिर दीवाली के 
कौन आँगन में बैठ कर भरेगा रंगोली 
न हो घर में खिलखिलाती, गाती बेटी तो
कैसे त्यौहार, कैसी तीज, होगी क्या होली

किसके हाथों में फिर रंग लाएगी मेंहदी
किसकी डोली उठेगी, कौन गीत गायेगा
किसके गेसू उड़ेंगे फिर घटाओं के मानिंद 
किसका लहराता आँचल, फिर किसे लुभाएगा

उदास मत हो कि ख़ुदगर्ज चंद लोगों की
नज़र में बेटियों का मोल नहीं, आस नहीं
मगर तू देख इसी दुनिया में हजारों घर
दमक रहे हैं बेटियों से, आस-पास कहीं

माँ मेरी, दे जनम मुझे कि इसी दुनिया में
कदम-कदम पे मेरी बहुत जरूरत है
क्यूँ इंतज़ार करूं, माँ मेरी, कि ये दुनिया
मेरे ही दम से कोई शहर ख़ूबसूरत है


(03.05.2011)

Monday, 2 May 2011

किसी पिछली ग़ज़ल की तलाश में शायद

 किसी पिछली ग़ज़ल की तलाश में शायद  
 किताबे-दिल पलट रहा है कोई, क्यों लेकिन

 वो हर्फ़, जिनमें पुरानी किताबें लिक्खी थीं  
 ढल चुके हैं नए नगमों, नई  नज़्मों  में 
 कोई सूखा गुलाब भी वहाँ न होगा अब 
 बू-ए-गुल उड़ भी चुकी बेपनाह लम्हों में

तमाम एहसास कभी इसमें बसा रक्खे थे
हवा चली जो वक़्त की, सफ़े उलट भी चुके
निशाँ जो हाशियों पे उँगलियों ने छोड़े थे
पीले पड़ चुके कोनों में, वो सिमट भी चुके

रक्खी थी आलमारी पे सहेज कर, अब तो
बहुत दिनों से किसी ने उसे छुआ भी नहीं
कौन है? आज वो धुन गुनगुनाना चाहता है
बहुत दिनों से किसी ने जिसे पढ़ा भी नहीं 

किसी पिछली ग़ज़ल की तलाश में शायद
किताबे-दिल पलट रहा है कोई, क्यों लेकिन