दोनों हाथों से चेहरा ढके हुए अपना
लाज से लाल कपोलों को थी छुपाये हुए
रही थी भीग वो फागुन की रंग-वर्षा में
भीगे आँचल में थी कमनीयता समाये हुए
थोड़ी शरमाई हुई, थोड़ी सी घबराई हुई
घटा गुलाल की उमड़ी तो वो सहमी-सिहरी
ऐसी होली भी इक बार मैंने देखी थी
रगों के गर्म लहू सी थी लालिमा बिखरी
वक़्त को बीतने में वक़्त कहाँ लगता है
हर सुबह आफ़ताब लाल मचल जाता है
दुनिया दिन भर में थोड़ी सी बदल जाती है
शाम ढलती है तो सूरज भी पिघल जाता है
लेकिन इस बार फिजां ज्यादा ही तब्दील हुई
और माहौल भी इस बार कुछ अजीब सा है
जिसको देखो उदासियों की तरह गुमसुम है
रूह मुर्दे की तरह, तन किसी सलीब सा है
जिस गली से गुजरता हूँ, ठहर जाता हूँ
खून के दाग देखता हूँ, ठहर जाता हूँ
जिधर भी देखिये वहशतों का आलम है
ये सब देख सिहरता हूँ, ठहर जाता हूँ
और इसी वहशतों के आलम में
चाँद शैतानों की हैवानियत मचल उट्ठी
उस कमसिन उमर को इस क़दर निचोड़ा है
देख इंसानियत की आत्मा दहल उट्ठी
अब भी खोये हैं राग-रंग में वहशी सारे
साल भर होली उनकी, उम्र भर दीवाली है
नसों में रक्त अब भी खौलता है लेकिन
नहीं इस गर्मी की तासीर पहले वाली है
फिर से लौट कर आया तो है फागुन लेकिन
कैसे बतलाओ इस माहौल में होली खेलें
उस मासूम की हालत पे नजर जाती है
तो दिल करता है होली में दीवाली खेलें
घर के आँगन में नीम तले पागल सी
देखो बैठी है सर अपना वो झुकाए हुए
दोनों हाथों से चेहरा ढके हुए अपना
लाज से लाल कपोलों को है छुपाये हुए
प्रभावी अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteधन्यवाद निवेदिता जी.
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