किसी पिछली ग़ज़ल की तलाश में शायद
किताबे-दिल पलट रहा है कोई, क्यों लेकिन
वो हर्फ़, जिनमें पुरानी किताबें लिक्खी थीं
ढल चुके हैं नए नगमों, नई नज़्मों में
कोई सूखा गुलाब भी वहाँ न होगा अब
बू-ए-गुल उड़ भी चुकी बेपनाह लम्हों में
तमाम एहसास कभी इसमें बसा रक्खे थे
हवा चली जो वक़्त की, सफ़े उलट भी चुके
निशाँ जो हाशियों पे उँगलियों ने छोड़े थे
पीले पड़ चुके कोनों में, वो सिमट भी चुके
रक्खी थी आलमारी पे सहेज कर, अब तो
बहुत दिनों से किसी ने उसे छुआ भी नहीं
कौन है? आज वो धुन गुनगुनाना चाहता है
बहुत दिनों से किसी ने जिसे पढ़ा भी नहीं
किसी पिछली ग़ज़ल की तलाश में शायद
किताबे-दिल पलट रहा है कोई, क्यों लेकिन
wah, wah....bahut ache..but the question remains "kyon lekin"
ReplyDelete"kitab-e-dil palat raha hai koi"...wonderful shayari, Pushpendra. I could feel the "pannon ki sarsarahat....," if you can describe the sound of turning the pages that way!
ReplyDeletethanks.. Ranjana and Atanu.
ReplyDeleteकितना सही कहा है आपने ..... अक्सर हम आगे बढ़ते हुए पलट पलट के देखते हैं . पता नहीं क्यों ....पर देखते तो हैं !!! खूबसूरत.
ReplyDeleteshukriya..!!
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