Thursday, 19 May 2011

अभी कुछ रोज़ कश्ती


यहाँ हरियाली बहुत है तो जंगल काट डालो फिर
मिटा के कोह सारा बियाबानों का मज़ा लो फिर 

अभी बहती हुई नदियाँ नहीं अच्छी तुम्हें लगतीं ?
बाँध कर बाँध पानी ही न क्यों इनका सुखा लो फिर

सुना है, आ चुके हो तंग तुम सैलानियों से अब  !
न कुछ दिन में कोई आएगा जितना भी बुला लो फिर

न  होगी  झील  ना  कोई  कतारें  देवदारों  की
अभी कुछ रोज़ कश्ती तुम जो चाहो तो चला लो फिर

कोह - पहाड़ 

(19.05.11)

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