Tuesday 3 May 2011

माँ मेरी, दे जनम मुझे



मैं तेरी गोद में आऊंगी तो महकेगी ज़मीं  
गुंचे हर सिम्त खिले तुझको नज़र आयेंगे
तेरी आँखें न मुझे देखती भर पाएंगी
तेरी रूह में तारे से बिखर जायेंगे

माँ मेरी, दे जनम मुझे कि इसी दुनिया में
कदम-कदम पे मेरी बहुत जरूरत है
क्यूँ इंतज़ार करूं, माँ मेरी, कि ये दुनिया
मेरे ही दम से कोई शहर ख़ूबसूरत है

जो मैं नहीं तो कलाई वो मेरे भाई की
करेगी इंतज़ार उम्र भर, मेरा हरदिन
कौन बांधेगा भला उसके हाथ पे राखी
पिरोके पीले-पीले धागों में, न हो जो बहिन 


मर्द ये माना कि ख़ुद को ख़ुदा समझता है
उसे इस दुनिया में पर कौन ले के आएगा
माँ की ममता की छाँव कैसी भला होती है
कैसे समझेगा, भला कैसे जान  पायेगा

किसके हाथों  सजेंगे दीये फिर दीवाली के 
कौन आँगन में बैठ कर भरेगा रंगोली 
न हो घर में खिलखिलाती, गाती बेटी तो
कैसे त्यौहार, कैसी तीज, होगी क्या होली

किसके हाथों में फिर रंग लाएगी मेंहदी
किसकी डोली उठेगी, कौन गीत गायेगा
किसके गेसू उड़ेंगे फिर घटाओं के मानिंद 
किसका लहराता आँचल, फिर किसे लुभाएगा

उदास मत हो कि ख़ुदगर्ज चंद लोगों की
नज़र में बेटियों का मोल नहीं, आस नहीं
मगर तू देख इसी दुनिया में हजारों घर
दमक रहे हैं बेटियों से, आस-पास कहीं

माँ मेरी, दे जनम मुझे कि इसी दुनिया में
कदम-कदम पे मेरी बहुत जरूरत है
क्यूँ इंतज़ार करूं, माँ मेरी, कि ये दुनिया
मेरे ही दम से कोई शहर ख़ूबसूरत है


(03.05.2011)

7 comments:

  1. this is the one!!!! love it....full of hope...the light...the brighter side...

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  2. अच्छी कविता है पु्ष्पेंद्र! ये एक ऐसी सच्चाई है जिसे लोग अगर अभी नहीं समझेंगे तो बहुत भयावह भविष्य उनके सामने होगा।

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  3. बहरहाल, ब्लॉग की दुनिया में स्वागत। एक राय यह कि कमेंट में वर्ड वैरीफिकेशन हटा दो तो लोगों को टिप्पणी करने में ज़्यादा सहूलियत होगी।

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  4. At a ratio of 940 girls to 1000 boys..... the day is not far when serious social implications will arise...

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