Wednesday, 27 April 2011

चुपचाप जल कर

 दिए की लौ में भी रोशनी तभी तक है
 जब तलक जलती रहे ख़ुदी उसकी
 उसका वजूद एक एहसास सा है उसके लिए
 कभी ख़ामोश फ़िजाओं में या कभी तन्हाई में

 वो लौ जो तड़पती है, चटखती है, हरपल
 वो रोशनी याद रखो, देती नहीं अंधियारों में
 चुपचाप जल कर ही मिट पाती है रात की स्याही
 कभी ख़ामोश फ़िजाओं में या कभी तन्हाई में  

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