बहुत दिनों के बाद आज मिला है मुझको
वो मेरा दोस्त जो बिछड़ा था, मगर याद रहा
जैसे पत्तों से बारिश का ढलकता पानी
दिन चढ़े अलसाई हुई आँखों से जुदा ख़्वाब
किसी बच्चे के हाथ से छिटका हुआ बैलून
लाख कस के दबाई हुई मुट्ठी से गिरी रेत
........ यूँ ही वक़्त फ़िसल बैठा गिरफ्तों से मेरी
कितना चाहा कि पलट छू लूँ, रोकूँ उनको
जो मेरे दोस्त मुझसे दूर हुए जाते हैं
मगर रुका न कोई और ख़ुद मैं भी न रुका
मानिंद-ए-ख़ुशबू हवा में बिखर गए सारे
......... कहाँ नहीं हैं आज मेरे हमकदम देखो
डूब कर गहरे, शबो-रोज की हैरानी में
फ़तह कर तो लिया हमने ये मुक़ाम-ओ-जहाँ
रुके जो सांस लेने को तो भला क्या पाया
किसे कहें कि मेरे दोस्त चल, ख़ुशी बांटें
...... कि यहाँ पहचान बहुत है मगर अहबाब कहाँ
वक़्त की धुंध यकायक जो हटी है इस पल
फिर हमें दोस्त मिले आज कई बरसों बाद
लिपट-लिपट के यूँ फिर आज बात करते हैं -
किसी से लफ़्ज लिपटते हैं, किसी से बाहें
........ शुरू फिर आज सिलसिला-ऐ-गुफ़्तगू होगा
तुझे जो देख के खिल उट्ठा है भीतर-भीतर
अट्ठारह-बीस की उमर है, या मैं ही हूँ
अक्स तेरा भी वही है, चंद शिकनों के सिवा
नक्श ये बीस बीते बरसों के नुमायाँ हैं
........ कुछ तो लाजिम है थकन का भी दिखाई देना
कहीं पे बैठ के फिर धूप सेंकते हैं चल
उम्र कुछ घट सी गयी है, क्यूँ भला लगता है
बात भी थोड़ी लड़कपन में कही लगती हैं
भूल फिलवक्त के हम-तुम हुए हैं उम्रदराज
............ चंद लम्हात हैं ये सिर्फ हमारी खातिर
कि फिर कल से वही होगी तगो-दौ ज़ारी
उससे पहले जरा इस रूह को ताज़ा कर लें
वर्ना बेसाख्ता ये भागती-चलती दुनिया
एक नया रूप दिखायेगी फिर गए कल का
.......... और फिर जाने कहाँ मैं, कहाँ पे तू होगा
जा ऐ दोस्त मगर इस बार ये वादा कर जा
जिंदगी की जद्दो-जहद दूर भले ही रक्खे
इस भीड़ में खो जाने को कहती तो रहे
अपनी कोशिश में कामयाब ना होने पाए
........... जेहन में सलवटों की अब तो गुंजाईश भी नहीं
बहुत दिनों के बाद आज मिला है मुझको
वो मेरा दोस्त जो बिछड़ा था, मगर याद रहा
वो मेरा दोस्त जो बिछड़ा था, मगर याद रहा
जैसे पत्तों से बारिश का ढलकता पानी
दिन चढ़े अलसाई हुई आँखों से जुदा ख़्वाब
किसी बच्चे के हाथ से छिटका हुआ बैलून
लाख कस के दबाई हुई मुट्ठी से गिरी रेत
........ यूँ ही वक़्त फ़िसल बैठा गिरफ्तों से मेरी
कितना चाहा कि पलट छू लूँ, रोकूँ उनको
जो मेरे दोस्त मुझसे दूर हुए जाते हैं
मगर रुका न कोई और ख़ुद मैं भी न रुका
मानिंद-ए-ख़ुशबू हवा में बिखर गए सारे
......... कहाँ नहीं हैं आज मेरे हमकदम देखो
डूब कर गहरे, शबो-रोज की हैरानी में
फ़तह कर तो लिया हमने ये मुक़ाम-ओ-जहाँ
रुके जो सांस लेने को तो भला क्या पाया
किसे कहें कि मेरे दोस्त चल, ख़ुशी बांटें
...... कि यहाँ पहचान बहुत है मगर अहबाब कहाँ
वक़्त की धुंध यकायक जो हटी है इस पल
फिर हमें दोस्त मिले आज कई बरसों बाद
लिपट-लिपट के यूँ फिर आज बात करते हैं -
किसी से लफ़्ज लिपटते हैं, किसी से बाहें
........ शुरू फिर आज सिलसिला-ऐ-गुफ़्तगू होगा
तुझे जो देख के खिल उट्ठा है भीतर-भीतर
अट्ठारह-बीस की उमर है, या मैं ही हूँ
अक्स तेरा भी वही है, चंद शिकनों के सिवा
नक्श ये बीस बीते बरसों के नुमायाँ हैं
........ कुछ तो लाजिम है थकन का भी दिखाई देना
कहीं पे बैठ के फिर धूप सेंकते हैं चल
उम्र कुछ घट सी गयी है, क्यूँ भला लगता है
बात भी थोड़ी लड़कपन में कही लगती हैं
भूल फिलवक्त के हम-तुम हुए हैं उम्रदराज
............ चंद लम्हात हैं ये सिर्फ हमारी खातिर
कि फिर कल से वही होगी तगो-दौ ज़ारी
उससे पहले जरा इस रूह को ताज़ा कर लें
वर्ना बेसाख्ता ये भागती-चलती दुनिया
एक नया रूप दिखायेगी फिर गए कल का
.......... और फिर जाने कहाँ मैं, कहाँ पे तू होगा
जा ऐ दोस्त मगर इस बार ये वादा कर जा
जिंदगी की जद्दो-जहद दूर भले ही रक्खे
इस भीड़ में खो जाने को कहती तो रहे
अपनी कोशिश में कामयाब ना होने पाए
........... जेहन में सलवटों की अब तो गुंजाईश भी नहीं
बहुत दिनों के बाद आज मिला है मुझको
वो मेरा दोस्त जो बिछड़ा था, मगर याद रहा
कितनी प्यारी और मीठी कविता है !!
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