Wednesday 20 April 2011

चला ही जा रहा है कारवां कहाँ आखिर?

चला ही जा रहा है कारवां कहाँ आखिर?

किसी को क्या पता जिस्मों की इस रवानी में
कितनी रूहों ने साथ छोड़ा है?
बूँद का रेत में धीमे से जज्ब हो जाना
कुछ इस अंदाज में ही वक़्त की सियाही ने,
उम्र की राह पे अपना निशान छोड़ा है

तमाम जिस्म जो शामिल हैं इस रवानी में
भला कोई उनमें खरीदार यहाँ है कि नहीं?
कोई है जो अपने साथ लेके आया है
अपनी उम्र का, एहसास का हिस्सा थोडा,
चंद गफलत भरे अलफ़ाज के एवज ही सही
बेच तो दे, पै ऐसा कोई बाज़ार नहीं

उस मुसाफिर की राह कितनी तंग सही
फिर भी छोड़े हैं उसने जलते हुए पैरों के निशां
कई आतिश-फ़िशां हैं दफन जिन निशानों में
धूल की पर्त तले सुलगते हैं फफोले अबतक
ताकि फिर कोई गुजरे इधर से भूले से
तो उनकी गर्मी से मालूम उसको हो जाये
कोई गुजरा है अकेला इधर से पहले भी
जो अपने जिस्मों-जां का खून कर गुजरा है

छिड़क के खून वही वो उफ़क के दामन पर
कह रहा था चीख-चीख कर ज़माने से
आने वाली सुबह का मेरे हाथों क़त्ल हुआ

(12.03.1993)

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