रूहे-ज़ख़्म-आलूद की हसरत है कह दे अलविदा
जल रहा था जो चरागाँ, वो भी अब बुझने लगा
पंख नश्तर-ऐ-सबा रख देगा उसके काटकर
आसमां की ओर नन्हा जो परिंदा था उड़ा
धूप के हाथों में हैं परछाइयों की किस्मतें
आबशारों से निकाह चिंगारियों का हो रहा
गर्द सी एक थम रही है दिल की धरती पर यहाँ
यादगारों पर हुई हैं वक़्त की परतें जमा
मैंने तब पूछा शहर में आग किसके घर लगी
जब मेरे घर की दीवारों से धुंआ उठने लगा
(21.07.1997)
जल रहा था जो चरागाँ, वो भी अब बुझने लगा
पंख नश्तर-ऐ-सबा रख देगा उसके काटकर
आसमां की ओर नन्हा जो परिंदा था उड़ा
धूप के हाथों में हैं परछाइयों की किस्मतें
आबशारों से निकाह चिंगारियों का हो रहा
गर्द सी एक थम रही है दिल की धरती पर यहाँ
यादगारों पर हुई हैं वक़्त की परतें जमा
मैंने तब पूछा शहर में आग किसके घर लगी
जब मेरे घर की दीवारों से धुंआ उठने लगा
(21.07.1997)
लिखते रहे, आप बहुत अच्छा लिखते है.
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