जैसे क़दमों के हाथ में मेरा मुकद्दर हो
उलझ रहा था फ़ासलों के साथ, बस यूँ ही
न कोई रास्ता, मंजिल और न कोई चिराग़
भटक रहा था काफ़िलों के साथ, बस यूँ ही
(03.07.2000)
उलझ रहा था फ़ासलों के साथ, बस यूँ ही
न कोई रास्ता, मंजिल और न कोई चिराग़
भटक रहा था काफ़िलों के साथ, बस यूँ ही
(03.07.2000)
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