Friday, 15 April 2011

बस कि तुम लौट गए एक ही दस्तक दे कर


कितनी  मुश्किलें   आयीं   दुबारा   मिलने में
बड़ी  मुश्किल  से आयी बात  ये भी  कहने में

बस कि  तुम लौट  गए एक  ही दस्तक  दे  कर 
वक़्त कुछ मुझको भी ज्यादा लगा निकलने में

काश ! एक   बार   तुमने    और   पुकारा   होता
तुम  थे  जल्दी  में शायद  और  हम सिमटने में

अज़ब   नहीं  कि   कोई   बात  हो नहीं   पाई
जो भी  कहना था, मैं  रह गया  वो लिखने में

न  कोई  ख़त,  न  अब  बाकी  ख़तूत  है  कोई
कि  सर्द  रातों में  काम आ  गए वो  जलने में

3 comments:

  1. you put it on paper so real that anybody can relate to the emotion as if it has happened to him/her at some point of time....

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    1. ताजा यादें हों तो पल भर में पिघल जाती हैं
      ख्वाबे-देरीना को लगती है उमर ढलने में

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  2. न कोई ख़त, न अब बाकी ख़तूत है कोई
    कि सर्द रातों में काम आ गए वो जलने में .....lovely !!

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