एक परवाने के मिट जाने का ग़म
हाय! शम्मा रात भर जलती रही
फूल इक जिस शाम को मुरझा गया
उस सुबह फिर इक कली खिलती रही
ये भी चाहा छोड़ जाएँ ये जहाँ
ज़िंदगी की आस भी पलती रही
रोशनी के दीप भी जलते रहे
झूठ बोला तो ज़माना ख़ुश हुआ
जब भी सच बोला जुबां सिलती रही
(03.06.1989)
हाय! शम्मा रात भर जलती रही
फूल इक जिस शाम को मुरझा गया
उस सुबह फिर इक कली खिलती रही
ये भी चाहा छोड़ जाएँ ये जहाँ
ज़िंदगी की आस भी पलती रही
रोशनी के दीप भी जलते रहे
और ग़म की छाँव भी हिलती रही
झूठ बोला तो ज़माना ख़ुश हुआ
जब भी सच बोला जुबां सिलती रही
(03.06.1989)
ये भी चाहा छोड़ जाएँ ये जहाँ
ReplyDeleteज़िंदगी की आस भी पलती रही....wah, wah kya baat hai....you got it!!!!!