Wednesday, 27 April 2011

एक परवाने के मिट जाने का ग़म

 एक परवाने के मिट जाने का ग़म
 हाय! शम्मा रात भर जलती रही

 फूल इक जिस शाम को मुरझा गया
 उस सुबह फिर इक कली खिलती रही

 ये भी चाहा छोड़ जाएँ ये जहाँ
 ज़िंदगी की आस भी पलती रही

 रोशनी के दीप भी जलते रहे
 और ग़म की छाँव भी हिलती रही 

 झूठ बोला तो ज़माना ख़ुश हुआ
 जब भी सच बोला जुबां सिलती रही

(03.06.1989)

1 comment:

  1. ये भी चाहा छोड़ जाएँ ये जहाँ
    ज़िंदगी की आस भी पलती रही....wah, wah kya baat hai....you got it!!!!!

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