Wednesday, 27 April 2011

बंधन तो दर्पन है

 मैं ही था पागल जो
 पानी में चंदा को
 देखा तो उसको ही सच का समझ बैठा
 पानी की बूंदें दो
 दामन में बिखरी तो
 सारे ही बादल को अपना समझ बैठा

 ऐसा नहीं होता
 हरगिज नहीं होता
 सपना तो सपना है, अपना नहीं होता
 अश्कों में ढल कर के
 हाँ, यूँ ही निकलेंगें
 आँखों में सपनो का बसना नहीं होता

 ऐसा नहीं करते
 हाँ-हाँ नहीं करते
 सपनों में रिश्तों को जोड़ा नहीं करते
 रिश्ते जो सच्चे हैं
 वो खुद ही जुड़ते हैं
 पागल से होकर यूँ दौड़ा नहीं करते

रिश्तों में तन-मन है
 तन-मन का बंधन है
 बंधन ये ना  टूटे, बंधन तो दर्पन है
 ऐसे ही रहना है
 अब यूँ ही बहना है
 जीवन ही धारा है, धारा ही जीवन है


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